आज कश्मीर घाटी जल रही है. रक्तरंजित है. हम सब लगभग एकमत हैं कि इसके लिए सिर्फ पाकिस्तान जिम्मेवार है. हम तो यह भी मानते हैं कि ‘कश्मीर समस्या’ नाम की कोई चीज ही नहीं है. पर हमारे गृहमंत्री यह भी कह देते हैं कि ‘कश्मीर समस्या’ के समाधान के लिए हम इससे संबद्ध ‘सभी पक्षों’ से बात करेंगे. जाहिर है, सरकार के पास कोई साफ नीति और योजना नहीं है. ऐसे में कश्मीर समस्या के संदर्भ में कोई साठ साल पहले शेख अब्दुल्ला की रिहाई की मांग के समर्थन में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लिखे गये जयप्रकाश नारायण के एक लंबे पत्र के इन हिस्सों को पढना शायद आप में से कुछ को प्रासंगिक लगे :
”..कश्मीर के सवाल को लेकर यह देश 19 वर्षों से परेशान है. इसकी कीमत हमने भौतिक और आध्यात्मिक दोनों तरह से चुकाई है. हम लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं, लेकिन कश्मीर में ताकत के बल पर शासन करते हैं. हम अपने आपको बहलाते रहे हैं कि बख्शी साहब के नेतृत्व में हुए दो आम चुनावों ने जनता की इच्छाओं को व्यक्त कर दिया है और ये कि जनता के एक छोटे हिस्से, पाकिस्तान समर्थक गद्दारों को छोड़कर बाकी लोगों के लिए सादिक सरकार लोकप्रिय बहुमत पर आधारित सरकार थी. हमलोग धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं, लेकिन हिंदू राष्ट्रवाद को येन-केन-प्रकारेण दबाव डाल कर स्थापित करने का प्रयास करने देते हैं.
‘कश्मीर ने दुनिया भर में भारत की छवि को जितना धूमिल किया है, उतना किसी और मसले ने नहीं किया है. रूस समेत दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है, जो हमारी कश्मीर संबंधी नीतियों की तारीफ करता हो, यद्यपि उनमें से कुछ देश अपने कुछ वाजिब कारणों से हमें समर्थन देते हैं.
‘यह बात कोई मायने नहीं रखती कि कितना अधिक, कितने जोर से और कितने लंबे समय से हम इस बात पर गुमान करते रहें कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और इसलिए कोई कश्मीर समस्या नहीं है. इसके बावजूद यह तथ्य अपनी जगह मौजूद है कि देश के उस हिस्से में हम एक गंभीर और अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या का सामना करते आ रहे हैं. वह समस्या इसलिए नहीं है कि पाकिस्तान कश्मीर पर कब्जा करना चाहता है, बल्कि इसलिए है क्योंकि वहां जनता में गहरा और व्यापक राजनीतिक असंतोष है. देश की जनता को कश्मीर घाटी की वास्तविक स्थिति के बारे में अंधकार में रखा जा सकता है. लेकिन नई दिल्ली स्थित सभी विदेशी दफ्तर और सभी विदेशी संवाददाताओं को सच का पता है… हमें भी तथ्यों की जानकारी है, लेकिन हम उनका सामना नहीं करना चाहते हैं और उम्मीद करते हैं कि कोई (शायद सादिक साहब या कासिम साहब) एक दिन जादू की छड़ी घुमाएगा और पूरी घाटी में एक मनोवैज्ञानिक बदलाव हो जाएगा…”
‘कुछ ऐतिहासिक घटनाओं ने, जिनमें से कुछ हमारे नियंत्रण में हैं और कुछ नहीं हैं, ने हमारी कार्यकुशलता (जो भारत सरकार को अब तक आ जानी चाहिए थी) को संकुचित करने का काम किया है. उदाहरण के लिए, अब राज्य के किसी भी हिस्से का किसी भी तरह से अलग होने का प्रयास अव्यावहारिक है, इस संदर्भ में यह बात मायने नहीं रखती कि यह लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के कितने अनुरूप है. जो भी समाधान होगा, वह अधिग्रहण की परिधि में ही होगा.