लोकनायक जयप्रकाश नारायण मानते थे कि राष्ट्र निर्माण सतत प्रक्रिया है और राष्ट्र निर्माण के लिए कश्मीर और नागा की समस्या का समाधान आवश्यक है। उनहोंने कहा था कि “साधु संतो के सद प्रयास से भारत में राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया पूरी हो गयी यह मानना भ्रममूलक है। भारत में राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया सतत है उसमें कश्मीर और नागा समस्या का हल आवश्यक है।”
जयप्रकाश कश्मीर की जनता को खुद मुख्तारी (self determination) का अधिकार देने के पक्षधर थे, यानि वह इस बात के समर्थक थे कि वहां की जनता खुद निर्णय करे कि वह कश्मीर में किसके साथ रहेंगे। अलबत्ता, 1967 में शेख़ अब्दुल्लाह के अधिवेशन में उन्होंने कश्मीरियों को ही यह सुझाव दिया था कि अपनी शर्तों के साथ भारत में ही एक स्वायत्त राज्य के रूप में रहना स्वीकार कर लें। भारत के साथ रहना ही बेहतर है। क्योंकि उस समय विश्व दो धु्रवों में बंट गया था और ऐसे में छोटे-छोटे देशों का अस्तित्व संभव नहीं था। समाजिक विशेषज्ञों का मानना है कि मोरारजी शासन काल में कश्मीर में पहली और अंतिम बार ऐसा चुनाव हुआ जब केंद्र का कोई पपेट सेना और सुरक्षा बलों के जोर से वहां स्थापित नहीं किया गया। जे पी नागालैंड पीस मिशन के भी सदस्य थे।
जेपी ने अपने जीवन काल में जिन मूल्यों को राष्ट्रीय पैमाने पर फिर से स्थापित करने की पहल की थी वे मूल्य जे पी के मरने के बाद भी जे पी के ही प्रयास थे कि भारत में मानवाधिकारों, महिला अधिकारों और युवाओं का क्लास मूवमेंट किताबों और प्रस्तावों से बाहर आकर आमजन आन्दोलन के रूप में शान्तिपूर्ण ढंग से चला।
जे पी आन्दोलन जो बिहार से शुरू हो कर पूरे भारत में फैला उसका जो असर रहा वह हम सब जानते हैं। जे पी आन्दोलन की अनोखी बात यह हुई कि जे पी जिसके खिलाफ संघर्ष कर रहे थे वह इंदिरा गांधी भी खुद की लड़ाई को फासीवाद के खिलाफ की लड़ाई कह रही थीं और जेपी भी अपने संघर्ष को फ़ासीवाद के खिलाफ संघर्ष कह रहे थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि जे पी आन्दोलन में जनसंघ ने भरपूर सहयोग दिया और उस समय जे पी जनसंघ के करीब आए लेकिन वह संघ की विचारधारा के खिलाफ रहे। जे पी ने इंदिरा को कहा था कि अगर जनसंघ फासीवादी है तो मैं भी फासीवादी हूँ लेकिन इसको हमेशा अलग तरह से कोट (quote) किया गया। जे पी ने कहा था कि अगर संघ के लोग बिना हाफ पैन्ट पहने हुए इस आन्दोलन में हैं तो मैं उनके बारे में नहीं जानता। आश्चर्य तो यह है कि बिपिन चन्द्र जैसे इतिहासकार अपनी किताब “इन द नेम ऑफ़ डेमोक्रेसी” में इसी को विश्लेषित करने का आधार पाते हैं कि जे पी मूवमेंट से फासीवादी शक्ति को बढ़ावा मिला। जबकि जे पी ने यह भी कई बार कहा था कि संघ को अपने दरवाज़े सभी धर्म के लोगों के लिए खोलना चाहिए और इसे मुख्य धारा में आना चाहिए।
जेपी के वैचारिक नेतृत्व और देश भर में फैले 1974-77 आन्दोलन से उस समय भारतीय जनतंत्र के बुनियाद मज़बूत हुए जब इसकी सख्त ज़रूरत थी। इसके बाद जेपी आन्दोलन से प्रेरित शक्तियां और आरएसएस की शक्तियां दोनों (ख़ास तौर पर 80 के दशक से) समानांतर रूप से अलग अलग काम करती हुई एक दूसरे से दूर चली गईं और आज हम एक बार संघी शक्तियों के सामने परास्त महसूस कर रहे हैं। इस अर्थ में जे पी के लोगों के ऊपर विशेष दायित्व है कि सांप्रदायिक उभारों पर प्रभावी रोक थाम के लिए काम करते रहें।