हमारे देश की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में बुनियादी बदलाव का सवाल कई प्रकार की जटिलताओं में उलझा हुआ है। इस सवाल को हल करने के लिए देश की ठोस सामाजिक-आर्थिक स्थिति को समझना और उस आधार पर समाज व्यवस्था के आर्थिक विभाजन के साथ-साथ सामाजिक विभाजन को आत्मसात करना निहायत जरूरी है। हमारा समाज जिस प्रकार वर्गीय आधार पर बँटा हुआ है, उसी प्रकार दलित, आदिवासी व अल्पसंख्यक समूहों एवं विभिन्न

राष्टीयताओं में भी बँटा हुआ है। खासकर जाति व्यवस्था का अस्तित्व भारतीय समाज की एक खास विशिष्टता है, जिसका संज्ञान लिये बगैर हम समाज-व्यवस्था के परिवर्तन की लड़ाई को आगे नहीं बढ़ा सकते हैं।

भारतीय शासक वर्गों ने प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तकद्ध जाति व्यवस्था का इस्तेमाल मेहनतकश वर्गों की खून-पसीने की कमाई को जी भरकर लूटने के लिए किया है। आज भी जाति व्यवस्था उनके शोषण-दोहन का एक महत्त्वपूर्ण वैचारिक व राजनैतिक औजार बनी हुई है। बाहर के देशों से विभिन्न हमलावर समूहों ने भारत में प्रवेश किया और उनमें से कइयों ने अपना राज भी कायम किया, लेकिन उन्हें भी अपनी लूट-खसोट जारी रखने के लिए जाति व्यवस्था के साथ तालमेल बिठानी पड़ी। यहाँ तक कि समानता व भाईचारा की दुहाई देने वाले इस्लामिक व क्रिश्चियन शासकों को भी जाति आधारित भारतीय समाज व्यवस्था से समझौता करना पड़ा और अपने धार्मिक अनुयाइयों को जातीय श्रेणी में विभाजित होते देखना पड़ा।

आज की तारीख में भी जाति की अवधारणा प्रतिक्रियावादी विचारधारा का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनी हुई है और शासक-शोषक समूह इसका इस्तेमाल मेहनतकश वर्गों को बाँटने व उनकी वर्गीय चेतना को कुन्द करने और जनवादी-क्रान्तिकारी आन्दोलन की एकता को नुकसान पहुँचाने के लिए करते हैं। जाति आधारित विषमता, भेदभाव, छुआछूत और ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता के विचार आज भी भारतीय समाज की सच्चाई बने हुए हैं। आये दिन उच्च व दबंग जातियों द्वारा दलितों व अन्य उत्पीड़ित समूहों पर तरह-तरह के जुल्म व अत्याचार किये जा रहे हैं। करीब 65 सालों की ‘आजादी’ के बाद भी देश के दलितों व पिछड़ों को आर्थिक, शैक्षणिक, सामाजिक व राजनैतिक क्षेत्रा में उचित हिस्सेदारी नहीं दी गयी है। हमारे देश को दुनिया का ‘सबसे बड़ा लोकतंत्रा’ कहा जाता है, लेकिन आज भी चुनावी राजनीति में जाति व्यवस्था एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।

इसलिए भारतीय समाज में जड़ जमाये जाति व्यवस्था के उद्भव व विकास और इसकी प्रतिगामी भूमिका के बारे में सही समझ हासिल करना और साथ ही साथ जाति व्यवस्था के खात्मे/उन्मूलन के लिए उचित रणनीति/कार्यनीति को विकसित करना तमाम प्रगतिशील, जनवादी व क्रान्तिकारी समूहों का पफौरी दायित्व हो गया है। जाति व्यवस्था का उद्भव व विकासयूरोपीय समाज से भिन्न भारतीय समाज का इतिहास जाति व वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। हमारे समाज की जाति व्यवस्था का इतिहास करीब 3500 वर्ष पुराना है। इस अवधि को आम तौर पर तीन भागों में बाँटा जाता है.

ईसा पूर्व वैदिक अवधि— ईसापूर्व 1500 से ईसापूर्व 500 वर्ष तक.

  • ईसापूर्व 1500 के आसपास आर्यन घुमक्कड़ समूहों व गैर खेतिहर आदिवासी कबीलों ने खेती की शुरुआत की।
  • ईसापूर्व 1000 वर्ष आते-आते खेती उत्पादन व्यवस्था का प्रमुख अंग बन गयी और ईसापूर्व 500 के आसपास राज्य की उत्पत्ति हुई।
  • ईसापूर्व 500 से ईसवी सन 400 तक इस अवधि में शूद्रों के मेहनत के बल पर खेती व व्यापार का विकास हुआ। आगे चलकर छोटे-छोटे राजाओं व अन्ततः सामन्तवाद का उदय हुआ।
  • चौथी सदी व उसके बाद की अवधि: इस अवधि में सामन्तवाद का सुदृढ़ीकरण व विकास हुआ, ब्राह्मणवादी हिन्दूवाद अस्तित्व में आया और जाति व्यवस्था का स्वरूप काफी जटिल व कठोर हो गया।
  • छठवीं सदी तक सामन्तवाद पूरे देश के स्तर पर सुदृढ़ हो गया, उसी तरह जाति व्यवस्था सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया भी तेज हुई। आम तौर पर 10वीं सदी आते-आते जाति व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया पूरी हो गयी।

जाति व्यवस्था के इस लम्बे इतिहास पर गौर करने से पता चलता है कि जब लोहे के इस्तेमाल के साथ कृषि का विकास हुआ तो उत्तर वैदिक व उपनिषद् काल — ईसापूर्व 1500 से ईसापूर्व 1000 वर्ष में चार वर्णों— ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य व शुद्र की व्यवस्था अस्तित्व में आयी। हालाँकि कुछ माक्र्सवादी इतिहासकारों का मानना है कि जाति व्यवस्था की जड़ें सिन्धु घाटी सभ्यता में ही विद्यमान थीं और ईसापूर्व 3000 से लेकर ईसापूर्व 1500 तक विभिन्न वर्णों के बीच तीखा विभाजन हो चुका था।

अगले अंक में : अम्बेडकर के अनुसार वर्ण-विभाजन