प्रायः सभी प्रबुद्ध नृजातिविज्ञानियों, समाजशास्त्रिायों व मार्क्सवादी विचारकों का मानना है कि सामन्ती उत्पादन प्रणाली के विकास की प्रक्रिया में कबीलाई समूहों का लगातार जबरन सादृशीकरण किया गया,फिर शोषण पर आधारित एक कृषि अर्थव्यवस्था का आविर्भाव हुआ, जिसमें जातीय विभाजन ठोस स्वरूप ग्रहण कर लिया और उत्पादन में शूद्र जातियों के श्रम की भूमिका प्रमुख हो गयी. इस प्रकार एक सरल आदिम अर्थव्यवस्था का अपेक्षाकृत एक जटिल,श्रम अधिशेष की लूट पर आधारित कृषि आधारित सामन्ती अर्थव्यवस्था में रूपान्तरण हो गया.अपने शोषण व लूट को बढ़ाने के लिए सामन्ती प्रभुओं ने न केवल कबीलाओं की संस्कृति/रीति-रिवाज व वर्जनाओं पर हमला किया, बल्कि युद्ध के जरिये उन्हें अधीन करने/गुलाम बनाने का भी अभियान चलाया.निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि जाति व्यवस्था का उद्भव सामन्तवाद व शोषक कृषि व्यवस्था के विकास के साथ काफी निकटता के साथ जुड़ा हुआ है. इस व्यवस्था में मुट्ठीभर सामन्तों का जमीन व राजसत्ता पर नियंत्रण होता है और व्यापक जनता को गुलामी की जिन्दगी नसीब होती है. सामन्ती ताकतें विशाल जन समुदाय के श्रम को लूटने के लिए न केवल जाति व्यवस्था का इस्तेमाल करती हैं,बल्कि धार्मिक दर्शनों व कर्मकांडों का भी सहारा लेती हैं. साथ ही साथ, पितृसत्ता को स्थापित व इस्तेमाल कर महिलाओं को गुलामी की जंजीर में जकड़ा जाता है और उन पर तरह-तरह के अत्याचार किये जाते हैं. जाति व्यवस्था न केवल कृषि कार्यों को सम्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार के श्रमिक समूहों को मुहैया करती है, बल्कि सामन्तों की ग्राम सत्ता व राजसत्ता को बरकरार रखने में भी मददगार साबित होती है.

यही कारण है कि हमारे देश में जाति व्यवस्था न केवल उपरी ढाँचा, बल्कि आर्थिक आधार का भी हिस्सा है. यद्यपि, जाति व्यवस्था, सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों के सभी पहलुओं को समाहित नहीं करती है और ‘जाति’ और ‘वर्ग’ एक दूसरे का समानार्थक शब्द नहीं हैं, ​फिर भी सामन्ती व्यवस्था के तहत जाति व्यवस्था व ब्राह्मणवादी जातिवादी विचारधारा व्यापक जनता को गुलाम बनाने और उनके श्रम की लूट को बढ़ाने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है.

पूंजीवादी विकास का जाति व्यवस्था पर असर

कई मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी समूहों की यह धारणा है कि सामन्ती—अर्ध-सामन्ती व्यवस्था में जब पूँजी का निर्णायक प्रवेश होता है तो जाति व्यवस्था स्वतः धराशायी हो जाती है. लेकिन हमारे देश का उदाहरण इस धारणा का पूरी तरह खंडन करता है. सच्चाई यह है कि ब्रिटिश शासन के दौरान हमारे देश में व्यापार व वाणिज्य के विकास के साथ-साथ कई क्षेत्रों में पूँजीवादी सम्बन्धों का भी विस्तार हुआ, लेकिन सामन्ती व्यवस्था व उत्पादन सम्बन्धों को पूरी तरह तोड़ा नहीं गया. फ्रांस की राज्य क्रान्ति के बाद साम्राज्यवादी ताकतों ने जो महत्त्वपूर्ण सबक लिया है, उसे आत्मसात करते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारतीय सामन्ती व्यवस्था के साथ समझौता किया. उसने हमारी अर्थव्यवस्था को उतना ही तोड़ा जितना उसके आर्थिक-राजनीतिक हितों के लिए अत्यावश्यक था। खासकर, 19वीं सदी के उत्तर्राद्ध में विक्टोरिया शासन शुरू होने के बाद उसने सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों पर कई जोरदार प्रहार किये, जिससे भारतीय औपनिवेशिक-सामन्ती अर्थव्यवस्था का एक औपनिवेशिक व्यवस्था में रूपान्तरण हो गया. 19वीं सदी के अन्तिम दो दशक से लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध की तैयारी तक औद्योगिक व अन्य क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश किया गया, जिससे सदियों से मौजूद सामन्ती ढाँचे में गुणात्मक परिवर्तन हुआ. तदनुसार बड़े पैमाने पर मजदूर वर्ग व अन्य मध्य वर्गों की उत्पत्ति व विकास हुआ और जाति व्यवस्था की चूलें भी हिलीं. लेकिन पूँजी निवेश व औद्योगिक विकास की गति इतनी तीव्र नहीं थी कि खेती-किसानी में लगी जनता का सर्वहाराकरण हो पाता. सच्चाई तो यह है कि मजदूर वर्ग भी काफी हद तक गाँव व जमीन से जुड़ा रहा और पूरी तरह से एक आधुनिक वर्ग की हैसियत प्राप्त नहीं कर सका. इस दौर में जो भी वर्ग संघर्ष हुए वह जातीय पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं थे. यहाँ तक कि वर्ग संघर्ष की अगुआई करने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी भी अपने को सामन्ती विचारधारा व जातीय पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं कर पायी। हालाँकि उसने 1930 के अपने एक प्रस्ताव में देश के ‘सभी अछूतों का आह्वान’ किया कि वे ‘मजदूरों के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन और जमीन्दारी विरोधी संयुक्त क्रान्तिकारी मोर्चे का हिस्सा बनें.’ जहाँ तक गाँधी व अन्य कांग्रेसी नेताओं का प्रश्न है, उन्होंने चतुर्वर्ण व्यवस्था को न केवल ‘प्राकृतिक व अनिवार्य’ बल्कि इसे ‘मानवीय शक्ति के संरक्षण के अनुकूल’ बताया. गाँधी ने तो यहाँ तक कहा कि ‘वर्ण व्यवस्था एक सांस्कृतिक व्यवस्था भर है..इससे बेहतर सामंजस्यपूर्ण व्यवस्था की कल्पना नहीं की जा सकती.’

1947 के बाद जब सत्ता का हस्तान्तरण हुआ और कांग्रेस पार्टी सत्ता में आयी तो कई प्रगतिशील, जनवादी व क्रान्तिकार ताकतों ने उम्मीद की कि अब देश में तेजी से पूँजीवाद का विस्तार होगा और जाति व्यवस्था का नामोनिशाँ मिट जाएगा. लेकिन वर्ण और जाति व्यवस्था के घृणित औचित्य को यही साबित करने वाली दलाल पूँजीपतियों व जमीन्दारों की पार्टी कांग्रेस से इस प्रकार की उम्मीद करना एक खयाली पुलाव पकाने के सिवा कुछ नहीं था. कांग्रेस की केन्द्रीय सरकार ने जमीन्दारी उन्मूलन कानून व कई अन्य भूमि सुधार कानून बनाये, लेकिन उन पर ईमानदारी के साथ अमल नहीं किया गया. यहाँ तक कि महामहिम राष्टंपति राजेन्द्र प्रसाद ने भी अपनी सैकड़ों एकड़ जमीनों को हदबन्दी कानून से बचाने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया. आगे चलकर कृषि विकास व हरित क्रान्ति, श्वेत क्रान्ति, पीली क्रान्ति, नीली क्रान्ति जैसी सतरंगी क्रान्तियों के जोरदार दावे किये गये, लेकिन समग्रता में कृषि उत्पादन के पैमाने में गुणात्मक रूप से फर्क नहीं आया. साथ ही साथ, समाज व्यवस्था के जनवादी रूपान्तरण की प्रक्रिया भी पूरी नहीं हुई.

1947 के बाद अर्ध औपनिवेशिक-सामन्ती भारत में साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी व देश के दलाल पूँजीपति वर्ग की पूँजी के गठजोड़ से पूँजीवाद का विकास व विस्तार हुआ है, इसमें कोई दो राय नहीं है. लेकिन इस विकास ने उत्पादन सम्बन्धों में कोई क्रान्तिकारी बदलाव नहीं लाया है, जैसा कि यूरोप के देशों में हुआ था. इस विकृत व अधूरे पूँजीवादी विकास ने प्राक् पूँजीवादी सम्बन्धों के एक बड़े हिस्से को अंगीभूत कर लिया है. इसलिए हमारे देश में जो भी पूँजीवाद का विकास हुआ है वह अर्द्ध-सामन्ती व प्राक्-पूँजीवादी ताने-बाने के साथ हुआ है. यही कारण है कि आज भी हमारे देश में जातीय व लैंगिक शोषण-दोहन के विभिन्न स्वरूप किसी न किसी रूप में मौजूद हैं.

यह सही है कि हाल के दशकों में हमारे देश की अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में हुए वित्तीय पूँजी के विस्तार से जाति व्यवस्था में तेजी से बिखराव हुआ है और नये-नये वर्गीय-जातीय ढाँचे अस्तित्व में आये हैं. खासकर, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार व दक्षिण भारत के कुछ राज्यों के ग्रामीण इलाकों में आर्थिक-सामाजिक सम्बन्धों में आये इस बदलाव को बखूबी देखा जा सकता है. कई राज्यों में पूँजीवादी फाॅर्मरों व आधुनिक कृषि यंत्रों से जुड़े दस्तकारों जैसे नये वर्गों का उदय हुआ है. साथ ही साथ, कुछ राज्यों में ब्राह्मण व क्षत्रिय जैसी उच्च जातियों का आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक वर्चस्व भी टूटा है. जाट, यादव, कुर्मी, पटिदार, पटेल, मराठा, कुनबी, रेड्डी, वोकालिंगा, लिंगायत, कम्मा आदि जातियों के प्रतिनिधियों का सत्ताधारी विशिष्ट वर्ग में शामिल होना इसके ज्वलंत उदाहरण हैं. आज मध्यम किसानों का बड़ा हिस्सा शूद्र जातियों से आये हुए लोगों से बनता है. इसी तरह छोटे-गरीब व भूमिहीन किसानों या खेत मजदूरों का अधिकांश हिस्सा अति शूद्र जातियों, नाॅरमेदिक जन जातियों व धार्मिक अल्पसंख्यकों,मुसलमानों, से बनता है. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आज जाति व वर्ग के स्वरूप में काफी परिवर्तन हुआ है. आज जाति में वर्गीय विभाजन है और वर्ग में जातीय विभाजन. भारत का मजदूर वर्ग यूरोपीय मजदूरों की तरह एक समांगी वर्ग नहीं है और इसके अन्दर भी जातीय विभाजन मौजूद है. यही भारतीय समाज की नंगी सच्चाई है. इस सच्चाई को आत्मसात नहीं करना जनवादी-क्रान्तिकारी आन्दोलन में सुधारवाद व अवसरवाद की प्रवृत्तियों को बढ़ावा देना है.