अम्बेडकर ने वर्ण-विभाजन की प्रक्रिया को समझाते हए लिखा है कि अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी ब्राह्मण या पुरोहित वर्ग, क्षत्रिय या सैन्य वर्ग, वैश्य या वणिक वर्ग और शूद्र या दस्तकार व दास वर्ग जैसे 4 वर्णों में विभाजित हुआ. इस वर्ण-व्यवस्था में योग्यता के अनुसार लोग अपना वर्ण बदल सकते थे. ये व्यवसाय के आधार पर बने थे जो आगे चलकर एकीकृत समाज में बदल गये. इसे ही अम्बेडकर ने ‘समूहों का सम्मिलन’ और ‘स्वांगीकरण’ की संज्ञा दी है। उनके अनुसार, वर्ण व्यवस्था ही जाति व्यवस्था में रूपान्तरित हुई।
उन्होंने जाति के 4 लक्षणों की शिनाख्त की, जो इस प्रकार है:
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लोग आनुवंशिक रूप से अपना जातिगत व्यवसाय कर रहे होते हैं,
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एक समूह का दूसरे समूह के साथ अन्तर सामूहिक खान-पान के सम्बन्धों का अभाव,
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जन्म से जिस समूह में हैं, उसी का सदस्य बने रहने की संकल्पबद्धता रहती है,और
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विवाह उसी समूह के अन्तर्गत होता है.
अम्बेडकर ने चौथे लक्षण, यानी वैवाहिक सम्बन्ध की सीमा को ही जाति व्यवस्था का मूल लक्षण माना है. उन्होंने ‘समूहों के सम्मिलन’ व ‘स्वांगीकरण’ की व्याख्या करते हुए कहा कि भारत की आबादी द्रविड़, मंगोल, आर्य व शकों के सम्मिश्रण से बनती है. इन मूल वंशों के लोग कबीलाई अवस्था में सदियों पूर्व विभिन्न दिशाओं से विभिन्न संस्कृतियों के साथ आये और बाद में पड़ोसियों की तरह बस गये. अनवरत सम्पर्क व आपसी मेलजोल से उन्होंने एक समन्वित
संस्कृति विकसित कर ली, जिसने उनकी खुद की विशिष्ट संस्कृतियों का स्थान ले लिया. इस तरह एक समांगीकृत सामाजिक इकाई अस्तित्व में आयी, जिसका विभिन्न वर्णों/जाति समूहों में विभाजन हुआ. विभाजन की इस प्रक्रिया की व्याख्या वे इस प्रकार करते हैं:
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मनु व सप्तर्षि की व्यवस्था: सर्वप्रथम वर्णों के निर्धारण/नवीकरण का अधिकार ‘मनु’ व ‘सप्तर्षि’ पदनाम वाले अधिकारियों के पास सुरक्षित था. वे हर 4 साल बाद योग्यता के आधार पर किसी व्यक्ति का वर्ण निर्धारित करते थे.
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गुरुकुल व्यवस्था: इस व्यवस्था के तहत गुरु द्वारा 12 साल की शिक्षा-दीक्षा की जाती थी. इसके बाद ‘उपनयन संस्कार’ होता था. इस उपनयन समारोह में आचार्य द्वारा विद्यार्थी का वर्ण तय किया जाता था. इस व्यवस्था द्वारा वर्ण को जीवनभर के लिए अपरिवर्तनीय बना दिया गया जबकि मनु व सप्तर्षि व्यवस्था के तहत 4 साल के बाद किसी व्यक्ति का वर्ण बदला जा सकता था, यानी योग्यता के आधार पर कोई ‘शूद्र’ भी ‘ब्राह्मण’ का दर्जा पा सकता था.
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उपनयन की नई व्यवस्था: इस व्यवस्था के तहत ब्राह्मणों ने उपनयन का अधिकार गुरु/आचार्य से छीनकर पिता को दे दिया. इसके बाद बहिर्गोत्र विवाह प्रतिबन्धित कर दिया गया और सजातीय विवाह की पद्धति का सूत्रपात हुआ.
अब जाति व्यवस्था पूरी तरह आनुवंशिक हो गयी और चारों वर्ण जाति में तब्दील हो गये. सबसे पहले सजातीय विवाह ब्राह्मणों ने शुरू की, जिसका अन्य वर्णों ने अनुकरण किया.
आगे चलकर ये चारों वर्ण सैकड़ों-हजारों जातियों/उपजातियों में बँट गये. सबसे कम विभाजन ब्राह्मण जाति में हुआ और सबसे ज्यादा वैश्य व शूद्र जातियों में. आज हमारे देश के विभिन्न भागों में कुल मिलाकर करीब 6,000 जातियाँ/उपजातियाँ विद्यमान हैं.
अम्बेडकर के अनुसार न तो मनु ने और न ही ब्राह्मणों ने जाति व्यवस्था लागू की, बल्कि समाज ने खुद ही इसे अंगीकार किया. मनुस्मृति — दूसरी सदी में लिखित— ने केवल जाति व्यवस्था का एक सम्पूर्ण वैचारिक आधार व औचित्य प्रदान किया. अम्बेडकर के शब्दों में, ‘सभी गैर ब्राह्मण उपविभाजनों व वर्गों ने अन्तःकरण से इसका अनुकरण किया, जो आगे चलकर सजातीय विवाह करने वाली जातियाँ बन गये।’
अगले अंक में अंतिम किस्त