तुमने देखी है वो पेशानी वो रुखसार वो होठ

जिंदगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने

मैंने फ़ैज को पहली दफा आपातकाल में जाना। अग्रज श्रीनिवास और उनके अनेक राजनीतिक मित्र आपातकाल लगते ही जेल में डाल दिए गए थे। मीसा बंदी के रूप में।

किंतु उनके एक पुराने, गैर-राजनीतिक मित्र चंद्रकांत झा आजाद थे। सदगृहस्थ थे तो राजनीति में सक्रिय भागीदारी की उनकी अपनी सीमाएं थीं, गोया राजनीतिक चैतन्य में कोई कमी नहीं थी । आपातकाल के विरोध में जो आग मद्धिम-मद्धिम सुलग रही थी, उसमें वैचारिक योगदान देते थे।

चंद्रकांत भैया ही कहीं से अमेरिका से चोरी-छुपे आने वाली आपातकाल विरोधी पत्रिकाएँ लाए थे। उनके कुछ आलेखों का हिंदी अनुवाद करने की जिम्मेदारी उन्होंने मुझे दी थी। उन्हीं में से किसी एक में फ़ैज की निम्नलिखित पंक्तियाँ - रोमन लिपी में - उद्धृत थीं :

निसार तेरी गलियों पे ए वतन / कि चली है जहाँ रस्म के कोई न सर उठा के चले।

जो चाहने वाला कोई तवाफ़ को निकले / तो नज़र चुरा के चले जिस्मो-जाँ बचा के चले।

इन पंक्तियों से प्रेरित होकर मैंने एक चित्र भी बनाया था - एक चेहरा था, एक आँख की जगह एक गुलाब था , और होठों पर उसके कांटे । ये पंक्तियाँ और यह चित्र शायद उस हस्तलिखित पत्रिका के कवर पर हमने लगायीं भी। पर ठीक-ठीक याद नहीं।

अपनी उमर पर हारमोन हावी थे उस बखत। ऐसे में आदमी या तो इश्क की ओर भागता है या इंकलाब की ओर। और कोई मूर्ति, कोई ‘आइकन’ ऐसा मिल जाए कि जिसमें इश्क और इंकलाब का संगम हो तो फिर उसका मुरीद होने में कितनी देर लगती है।

फ़ैज में पारंपरिक शायरी की।- गालिब और मीर की - गहराई भी थी, इकबाल का जोश भी और छंदोबद्ध शायरी के बंधनों को छोड़कर आसमान में उड़ने का हौसला भी। जैसे सूर और खुसरो के काव्य में आध्यात्म और प्रेम एकरूप हो जाते हैं, उसी तरह फ़ैज के कलाम में प्रेम और इंकलाब एक दूसरे से लिपटे पड़े हैं। आग और बर्फ़ का यह सम्मिश्रण ही फ़ैज का जादू है - जैसे किसी मीठे शरबत और तीखी मदिरा का मादक काकटेल।

वे जब कहते भी हैं कि ‘अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे / और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा’, तो हम जानते हैं कि यह बंदा इंकलाब की ओर जा तो रहा है, पर इश्क का दामन इससे छूटेगा नहीं। कि हुस्न की दिलकशी इसे फिर यहीं खींच लाएगी, कि पहली सी मुहब्बत इसका माशूक़ नहीं, ये खुद अपने आप से मांग रहा है।

फिर भी शुरुआत में फ़ैज के उत्तेजक इंकलाब से ही साबका पड़ा। याद पड़ता है कि ‘निसार तेरी गलियों’ के बाद हमने उनके कुछ और अशआर को अपने अभियान के लिए इस्तेमाल किया :

मताओ-लौहो-कलम छिन गयी है तो क्या ग़म है/ खून-ए-दिल में डूबो ली हैं उंगलियां मैंने।।

या फिर :

बोल कि लब आजाद हैं तेरे

बोल जुबां अब तक तेरी है

बोल कि सुतवां जिस्म है तेरा

बोल कि जाँ अब तक तेरी है

इसी दौर-दौरे में मेहदी हसन साहब की उदास आवाज में फ़ैज का वह दिल को चीर देने वाला कलाम सुन पड़ा :

गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले

चले भी आओ कि गुलशन का करोबार चले

क़फ़स उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहो

कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़

कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-ए-बार चले

बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही

तुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़मगुसार चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब -ए-हिज्राँ

हमारे अश्क तेरी आक़बत सँवार चले

हुज़ोओर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब

गिरह में लेके गरेबाँ का तार तार चले

मक़ाम ‘फैज़’ कोई राह में जचा ही नहीं

जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले।

दरअसल इसी जगह रौशनी की उस जादूई सुरंग के दरस हुए जिसका कि उपर जिक्र किया है, याने जिसका कि एक छोर यार की गली में खुलता है, और दूसरा सलीब के करीब ।

इसकी एक वजह और थी - इस गज़ल को मैंने पहली बार पंकज भैया (श्रीनिवास भैया के मित्र) की संगत में सुना था। आपातकाल के बाद की बात रही होगी जब वे जेल से बाहर आ चुके होंगे। अब फ़ैज की रूमानियत और इंकलाब के मिश्रण का मूर्तिमान रूप किसी को देखना हो तो पंकज भैया को देखे। खल्वाट सर, बढ़ी हुई दाढ़ी, तरल आंखें, रुक रुक कर, तौल तौल कर विनम्र दृढ़ता से बात करने का अंदाज़, खादी का पायजामा, खादी का ही गंजीनुमा कुर्ता, फटी हुई चप्पल, झोले में क्रांतिकारी साहित्य और खैनी की डिब्बी, दिल में डॉ लोहिया और जुबान पर फ़ैज, जोश और दुष्यंत।

फ़ैज के इंकलाब को तो फिर भी स्काच की दरकार थी, पंकज भैया को खैनी की चुटकी ही बहुत थी। फ़ैज के मुहावरे में रूमानियत उनके इंकलाब को आकर्षक बनाती थी, और इंकलाब उनकी रूमानियत को वैलीडेट करता था। पंकज भैया के संसार में इंकलाब ही रूमानियत था, वही उनका माशूक़, वही रोमांस। दोनों में द्वैत नहीं था।

वे साहित्यानुरागी भी थे। कोई कविता, कोई पंक्ति कहीं पढते, पसंद आ जाती तो मिलने पर तपाक, लगभग बाल-सुलभ जोश के साथ सुनाते । उनकी सुनाई हुई फ़ैज की कई पंक्तियाँ हमेशा के लिए रूह में पैवस्त हो गयीं :

रंग पैराहन का खुशबू ज़ुल्फ लहराने का नाम

मौसमे गुल है तुम्हारे बाम पे आने का नाम

और क्या देखने को बाक़ी है

आप से दिल लगा के देख लिया

दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है

लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया

तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के

हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे

जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे

इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन

देखे हैं हम ने हौसले परवरदिगार के

इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उन को मुबारक

इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे

जवाब में मैं भी कहीं पढ़ी / सुनी हुई पंक्तियाँ सुनाता:

तेरे होंटों के फूलों की चाहत में हम

दार की ख़ुश्क टहनी पे वारे गए

तेरे हाथों की शम्म’ओं की हसरत में हम

नीमतारीक राहों में मारे गए

यह बात अलग है कि सबसे पहले पंकज भैया रोटी-नमक-प्याज की फ़रमाइश करते - तनिका खाए दीं मर्दे। पंकज भैया के साथ गर्मी के दिनों में मुजफ्फरपुर के डेरे की छत पर दरी पर , और कभी कभी तो नंगी छत पर या पानी की टंकी पर ही लेटे लेटे दुनिया जहान की , लोहिया और गांधी की, फ़ैज और मेहदी हसन की, राम कृष्ण और शिव की बातें करते करते पूरी रात बिता देने की स्मृतियाँ आज भी ताजी हैं। उनके साथ बिताए हुए क्षणों ने साहित्य और जीवन को समझने की मेरी दृष्टि को नए परिप्रेक्ष्य दिए। निर्गुण इंकलाब से उनकी इश्के हकीकी देखकर अपने सगुण भक्तियोग पर लज्जा भी आती थी। उनके सानिध्य में लगता था मानो वे फ़ैज की शायरी को जी रहे हैं और मुझे इस परिघटना के गवाह होने का गौरव प्राप्त है।

वह जमाना इंटरनेट का नहीं था। पसंदीदा चीजें पढ़ने के लिए या तो लाइब्रेरी का आसरा था, या फिर पटरी के किनारे लगने वाली फुटपाथी दुकानों का। जेबखर्च का नब्बे फीसद तो फिल्में देखने के जुगाड़ में खर्च हो जाता था, बाकी मोतीझील की चाट पकौड़ी या भंग वाली लस्सी पीने में। कभी-कभी पैसे बचते तो किताबें खरीदता। कौड़ी के भाव बेशकीमत किताबें। वहीं से बाद में फ़ैज के दो तीन संकलन खरीदे। आज भी कहीं पड़ी हों शायद।

फ़ैज ने इतना लिखा है और इतना अच्छा लिखा है कि उसमें से क्या चुना जाए यह तय करना मुश्किल है। फिर भी मुझे उनकी तीन गजलें / नग्मे सर्वाधिक पसंद हैं -

(1) मुझसे पहली सी मुहब्बत

फ़ैज के इंकलाब और रोमांस के अंतर्द्वंद्व को प्रकट करने वाली प्रतिनिधि और संभवतः उनकी सबसे लोकप्रिय रचना।

(2) अपने बेख्वाब किवाडों को

इसका अवसादी स्वर मेरे दिल के बहुत करीब है।

(3) आए कुछ अब्र कुछ शराब आए

इसे मेहदी हसन साहब ने गाया भी है। इन पंक्तियों से दिल ऐसे तड़पता है कि क्या कहिए। जी करता है स्रष्टा ययाति की तरह मुझे भी फिर से यौवन दे दे। नीचे उद्धृत कर रहा हूँ , ताकि सनद रहे :

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग

मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात

तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झगड़ा क्या है

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है?

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए

यूँ न था, मैंने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए

और भी दु:ख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा

अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म

रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाए हुए

जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म

ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून में नहलाए हुए

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से

पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे

अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे!

और भी दु:ख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग



फिर कोई आया दिल-ए-जार, नहीं कोई नहीं

राहरौ होगा, कहीं और चला जायेगा

ढल चुकी रात,बिखरने लगा तारों का गुबार

लडखडाने लगे, ऐवानों में ख्वाबीदा चिराग

सो गई रस्ता, तक तक के हर इक राहगुजार

अजनबी खाक ने, धुंधला दिए कदमों के सुराग

गुल करो शम्एँ, बढ़ा दो मय-ओ-मीना-ओ-अयाग

अपने बेख्वाब किवाडों को, मुक़फ्फल कर लो

अब यहाँ कोई नहीं कोई नहीं आएगा



आए कुछ अब्र कुछ शराब आए

उस के बाद आए जो अज़ाब आए

बामे-मीना से माहताब उतरे

दस्ते-साक़ी में आफ़्ताब आए

हर रगे-ख़ूँ में फिर चिराग़ाँ हो

सामने फिर वो बेनक़ाब आए

उ’म्र के हर वरक़ पे दिल को नज़र

तेरी मेह्‍रो-वफ़ा के बाब आए

कर रहा था ग़मे-जहाँ का हिसाब

आज तुम याद बेहिसाब आए

न गई तेरे ग़म की सरदारी

दिल में यूँ रोज़ इन्क़लाब आए

जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम

जब भी हम ख़ानमाँ-ख़राब आए

इस तरह अपनी ख़ामशी गूँजी

गोया हर सिम्त से जवाब आए

‘फ़ैज़’ थी राह सर-ब-सर मंज़िल

हम जहाँ पहुँचे कामयाब आए