1 जनवरी, 1917, कानपुर। 28 दिसंबर (1916) को लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के दौरान दो पत्रकार गांधी से मिलने गये। ‘प्रताप’ के संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी और उनके अनन्य मित्र, युवा पत्रकार माखनलाल चतुर्वेदी। दोनों युवा - 25-26 वर्ष के।
गांधी कांग्रेस कैम्प में भी अपने सिद्धांत के अनुसार चक्की पीस रहे थे। एक बैरिस्टर और इतना बड़ा नेता चक्की पीसे, इससे अंगरेजों के सांचे में ढले नेताओं को घृणा-सी होती थी और राष्ट्रीय नेता गांधीजी की उपेक्षा करते थे। किन्तु ग्रामीण उन्हें देखना चाहते थे, जानना चाहते थे, उन पर कुरबान जाते थे।
गणेशशंकर विद्यार्थी ने कहा – ‘गांधीजी, आप कानपुर आइये।‘
गांधीजी ने कहा - हां-हां, कानुपर के और भाई भी मेरे पास आये थे। उनसे मैंने कहा कि ‘प्रताप’ का सम्पादक गणेशशंकर विद्यार्थी आवे तो बात करके जवाब दूंगा। तो अब मैं कानपुर आऊंगा। पर मैं तुम्हारे पास ही ठहरूंगा।
गणेशशंकर विद्यार्थी ने तत्काल कहा - मेरे छापेखाने में तो धूल उड़ती है। हम कानपुर के लोग आपको बहुत अच्छी जगह ठहरायेंगे।
गांधीजी खिलखिलाकर बोले – भाई, मुझे अच्छी जगह नहीं ठहरना है, मुझे तुम्हारे ही पास ठहरना है।
ठीक चौथे दिन, पहली जनवरी (1917) को माखनलाल चतुर्वेदी कानपुर ‘प्रताप’ प्रेस पहुंचे तो देखा, गांधीजी वहां पहुंचे हुए हैं! वे उस समय पत्र लिखने में व्यस्त थे। एक साधारण-सी कलम थी, आलपीन की जगह बबूल के कांटे रखे हुए थे। और, ‘प्रताप’ प्रेस के नल पर उनके कपड़े धुल रहे थे। लोगों से मिलने का समय होते ही उन्होंने अपना लिखना बंद कर दिया। गणेशशंकर विद्यार्थी के साथ माखनलाल उनके नजदीक जाकर बैठ गए और चर्चा करने लगे।
गणेशशंकर विद्यार्थीजी सवाल करते। गांधीजी जवाब देते। साथ में थे कानपुर के थियोसॉफिकल हाई स्कूल के हेड मास्टर श्री परांजपे। वह भी बीच-बीच में गांधीजी से सवाल करते। गांधीजी उनके सवालों का भी जवाब दे रहे थे। माखनलालजी प्रश्नोत्तर नोट करने लगे। वह छपा, गणेशजी के प्रश्नोत्तर के रूप में, जो इस प्रकार था -
प्रश्न : मैं और मेरे कितने ही मित्र सशस्त्र क्रांति में विश्वास करते हैं…!
गांधीजी बीच ही में बोले – हां, सो तो ठीक है। मैं भी क्रांति में विश्वास करता हूं, किन्तु मैं उस क्रांति को नहीं समझ सकता जो क्रांति अपने लिए की जाती है, और औरों को मारने दौड़ती है। कहावत है कि ईसामसीह तो खुद मरकर ही बना जा सकता है।’
प्रश्न : तब तो आपके कार्यों में सशस्त्र क्रांतिवादियों की तथा राष्ट्रीय दल के लोगों की सारी मेहनत बरबाद हो जायेगी?
उत्तर : अभी तक जो हुआ है वह यही कि एक-दो आदमी मारे गये हैं और विदेशी राज ज्यों-का-त्यों बलवान है। मेरे काम से आपके प्रयत्न बरबाद नहीं होंगे। एक तो देश से हिंसा हटेगी और दूसरे जिस काम में देश को बहुत देर लग रही है, मेरा तो विचार है कि वह जल्दी हो जायेगा। गणेशजी महात्माजी के इस उत्तर से बेचैन हो उठे। उन्होंने कहा - अंगरेज इतने सीधे नहीं हैं कि कोई प्रयत्न न करने पर वे भारत को स्वराज दे दें।
गांधीजी : यह मैं कब कहता हूं कि बिना प्रयत्न के कुछ मिलेगा। मैं तो कहता हूं कि इस देश के जन-जीवन को प्रयत्न करना पड़ेगा, तैयारी करनी पड़ेगी, किन्तु वह दूसरे को मारकर नहीं स्वयं मरकर। मारने में क्या लगता है, मैं भी तलवार से गले काट सकता हूं, किन्तु औरों के गले काटने की अपेक्षा अपनी निर्बलता, अपनी झिझक, अपनी कायरता और अपने बड़े बनने की इच्छा को काटना मुश्किल है।
गणेशजी गांधीजी के कथन से संतुष्ट नहीं हुए। गणेशजी के साथी भी नहीं। किन्तु सबने सोचा, प्रेरणामयी वाणी में बोलनेवाला कोई नेता हमारे बीच में है। सबने मिलकर गांधीजी को प्रणाम किया और विदा ली। (जारी)