1931 (23 मार्च), दिल्ली। गांधी ने वाइसराय को पत्र भेजा - प्रिय मित्र, आपको यह पत्र लिखना आपके प्रति क्रूरता करने जैसा लगता है; पर शांति के हित में अंतिम अपील करना आवश्यक है। यद्यपि आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगतसिंह और अन्य दो लोगों की मौत की सजा में कोई रियायत किये जाने की आशा नहीं है, फिर भी आपने मेरे शनिवार के निवेदन पर विचार करने को कहा था। डॉ. सप्रू मुझसे कल मिले और उन्होंने मुझे बताया कि आप इस मामले से चिंतित हैं और आप कोई रास्ता निकालने का विचार कर रहे हैं। यदि इस पर पुन: विचार करने की कुछ गुंजाइश हो, तो मैं आपका ध्यान निम्न बातों की ओर दिलाना चाहता हूं।
जनमत, वह सही हो या गलत, सजा में रियायत चाहता है। जब कोई सिद्धांत दांव पर न हो तो लोकमत का मान करना हमारा कर्तव्य हो जाता है।
प्रस्तुत मामलें में स्थिति ऐसी है कि यदि सजा हल्की की जाती है, तो बहुत सम्भव है कि आंतरिक शांति की स्थापना में सहायता मिले। यदि मौत की सजा दी गई तो नि:संदेह शांति खतरे में पड़ जायेगी।
मैं आपको यह सूचित कर सकता हूं कि क्रातिकारी दल ने मुझे यह आश्वासन दिया है कि यदि इन लोगों की जान बख्श दी जाये तो यह दल अपनी कार्यवाहियां बंद कर देगा। यह देखते हुए मेरी राय में मौत की सजा को, क्रांतिकारियों द्वारा होने वाली हत्याएं जब तक बंद रहती हैं, तब तक तो मुल्तवी कर देना एक लाजमी फर्ज बन जाता है।
राजनीतिक हत्याओं के मामलों में इससे पहले भी तरह दी जा चुकी है। यदि ऐसा करने से बहुत-सी अन्य निर्दोष जानें बचाई जा सकती हों, तो उनका बचाना लाभदायक होगा। हो सकता है कि इससे क्रांतिकारी की आतंकपूर्ण कार्यवाहियां लगभग समाप्त हो जायें।
चूंकि आप शांति-स्थापना के लिए मेरे प्रभाव को, जैसा भी वह है, उपयोगी समझते प्रतीत होते हैं, इसलिए अकारण ही मेरी स्थिति को भविष्य के लिए और …ज्यादा कठिन न बनाइए ; यों ही वह कुछ सरल नहीं है।
मौत की सजा पर अमल हो जाने के बाद तो वह कदम वापस नहीं लिया जा सकता। यदि आप यह सोचते हैं कि फैसले में थोड़ी भी गुंजाइश है, तो मैं आपसे यह प्रार्थना करूंगा कि इस सजा को, जिसे फिर वापस नहीं लिया जा सकता, आगे और विचार करने के लिए स्थगित कर दें।
यदि मेरी उपस्थिति आवश्यक हो तो मैं आ सकता हूं। यद्यपि मैं बोल नहीं सकूंगा, पर मैं सुन सकता हूं और जो-कुछ कहना चाहता हूं, वह लिखकर बता सकूंगा। (मौनवार होने के कारण)
दया कभी निष्फल नहीं जाती।
मैं हूं,
आपका विश्वस्त मित्र
मौनवार होने के कारण उस दिन अपने पत्र में, गांधी ने ‘गोपनीय’ लिखा। वाइसराय ने तत्काल गांधी के पत्र यह उत्तर भेज दिया – “मैंने आपकी हर बात पर दुबारा बड़े गौर से विचार किया है और मैं आपका काम कदापि और कठिन नहीं बनाना चाहूंगा, खासकर वर्तमान हालात में। लेकिन मुझे लगता है कि उन कारणों से, जिन्हें बातचीत के दौरान मैंने आपको पूरी तरह समझाने की कोशिश की थी, मुझे किसी तरह ऐसा नहीं लगता है कि आप जो कुछ करने का अनुरोध कर रहे हैं, उसे करना ठीक होगा।”
और, शाम होते-होते गांधीजी की ओर से एक बयान जारी हो गया :
नई दिल्ली
23 मार्च, 1931
भगत सिंह और उनके साथी फांसी पाकर शहीद बन गये हैं। ऐसा लगता है मानो उनकी मृत्यु से हजारों लोगों की निजी हानि हुई है। इन नवयुवक देशभक्तों की याद में प्रशंसा के जो शब्द कहे जा सकते हैं, मैं उनके साथ हूं। तो भी देश के युवकों को उनके उदाहरण की नकल करने के विरुद्ध चेतावनी देता हूं। बलिदान करने की अपनी शक्ति, अपने परिश्रम और त्याग करने के अपने उत्साह का उपयोग हम उनकी तरह न करें। इस देश की मुक्ति खून करके प्राप्त नहीं की जानी चाहिए।
सरकार के बारे में मुझे ऐसा लगे बिना नहीं रहता कि उसने क्रांतिकारी पक्ष को अपने पक्ष में करने का सुनहरा अवसर गंवा दिया है। समझौते को दृष्टि में रखकर और कुछ नहीं तो फांसी की सजा को अनिश्चित काल तक अमल में न लाना उसका फर्ज था। सरकार ने अपने काम से समझौते को बड़ा धक्का पहुंचाया है और एक बार फिर लोकमत को ठुकराने और अपने अपरिमित पशुबल का प्रदर्शन करने की शक्ति को साबित किया है।
पशुबल से काम लेने का यह आग्रह कदाचित् अशुभ का सूचक है और यह बताता है कि वह मुंह से तो शानदार और नेक इरादे जाहिर करती है, पर सत्ता नहीं छोड़ना चाहती। फिर भी प्रजा का कर्तव्य तो स्पष्ट है।
कांग्रेस को अपने निश्चित मार्ग से नहीं हटना चाहिए। मेरा मत तो यह है कि ज्यादा से ज्यादा उत्तेजना का कारण होने पर भी कांग्रेस समझौते को मान्य रखे और आशानुकूल परिणाम प्राप्त करने की शक्ति की परीक्षा होने दे।
गुस्से में आकर हमें गलत मार्ग पर नहीं जाना चाहिए। सजा में कमी करना समझौते का भाग नहीं था, यह हमें समझ लेना चाहिए। हम सरकार पर गुंडाशाही का आरोप तो लगा सकते हैं, किंतु हम उस पर समझौते की शर्तों को भंग करने का आरोप नहीं लगा सकते। मेरा निश्चित मत है कि सरकार द्वारा की गई इस गम्भीर भूल के परिणामस्वरूप स्वतंत्रता प्राप्त करने की हमारी शक्ति में वृद्धि हुई है और उसके लिए भगत सिंह और साथियों ने मृत्यु को भेंटा है।
थोड़ा भी क्रोधपूर्ण काम करके हम मौके को हाथ से न गंवा दें। सार्वजनिक हड़ताल होगी, यह तो निर्विवाद ही है। बिल्कुल शांत और गंभीरता के साथ जुलूस निकालने से बढ़कर और किसी दूसरे तरीके से हम मौत के मुंह में जाने वाले इन देशभक्तों का सम्मान कर भी नहीं सकते।