1927 (22 अप्रैल)। करीब 20 महीने बाद काकोरी षड्यंत्र केस का फैसला हुआ। फैसले के मुताबिक रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां, रोशन, लाहिड़ी और राजेंद्र सिंह को मृत्युदंड तथा बाकी सभी को आजीवन कालेपानी तथा 14-14 वर्ष, 10-10 वर्ष, 5-5 वर्ष जैसी सजाएं सुनाई गयीं। 9 अगस्त, 1925 को लखनऊ के पास काकोरी में 8 डाउन पैसंजर गाड़ी को रोककर उसमें लदा सरकारी खजाना देशभक्त क्रांतिकारी नवयुवकों ने लूटा था। बाद में गिरफ्तारियां हुईं और काकोरी षड्यंत्र केस के नाम से मुकदमा चला। सशस्त्र क्रांतिकारियों के प्रति अपने सहयोग और सहानुभूति के भाव को खुलकर प्रकट करते हुए गणेशजी ने उन क्रांतिकारियों की हरसंभव मदद की। 9 अगस्त, 1925 की उसी घटना पर अदालत ने फैसला सुनाया 6 अप्रैल, 1927 को।
22 अप्रैल, 1927 को ‘प्रताप’ में छपा गणेशशंकर विद्यार्थी का लेख - ‘वे दीवाने!’ उसमें भारत के सशस्त्र क्रांतिकारियों के प्रति कांग्रेस के रवैये पर गणेशजी ने असहमति जताई। सिर्फ असहमति नहीं, तीव्र भर्त्सना की।
गणेशजी ने लिखा – ‘… व्यावहारिकता का दूसरा नाम कायरता है। कुछ मतवाले ऐसे हैं, जो इस दुनियादारी से घृणा करते हैं। संसार की दृष्टि में ये अधीर, आदर्शवादी हैं। वे जहां जाते हैं अपमानित किये जाते हैं। उनके कार्यों में विकरालता रहती है। हमलोग कभी उन्हें ठीक-ठीक नहीं समझ पाते। कारण? बात यह है कि कायर लोग वीरों की कद्र करना नहीं जानते। दृष्टिकोण में अंतर होने के कारण उनके कार्यों की महत्ता हम दुनियावी लोगों की आंखों में नहीं समा सकती। भारतवर्ष के राजनीतिज्ञों की खोखली तथा शाब्दिक सहानुभूति भी उन वीरों को प्राप्त नहीं होती। गालियां उन्हें जरूर मिल जाती हैं। उनकी सेवाओं की कद्र करना तो दूर, कई धुआंधार राजनीतिज्ञों ने उलटा उन्हें देशद्रोही कहा है।
मॉडरेट अखबारों ने तो बाज मौकों पर यहां तक लिख मारा है कि ‘उन्हीं अनुत्तरदायी, जल्दबाज नौजवानों के देशद्रोह का यह फल है कि भारतवर्ष में दमनकारी कानूनों की सृष्टि हुई है।’ उन कायर राजनीति-पंडितों का मत है कि न इन नवयुवकों की कठोर कार्यप्रणाली का प्रदर्शन होता और न सरकार बहादुर को कड़ाई से काम लेना पड़ता। इसलिए मुल्क में सरकार आला की तरफ से जो कुछ धांधली हुई उसका मूल कारण है कुछ नौजवानों की अधीरता और अनुत्तरदायिता। मुल्क के लिए सिर कटाने का प्रतिफल यह मिला कि अन्याय, अत्याचार और काले कानूनों के निर्माण कराने का पाप उन निरपराध वीरात्माओं के सिर मढ़ा गया। सबसे घृणित लांछन जो इन वीरों पर लगाया गया वह यह कि वे देशद्रोही, देश के दुश्मन इसलिए हैं क्योंकि उन्होंने काले कानूनों की सृष्टि की है। नरम राजनीतिज्ञों की इस नीचातिनीच भावना को हम किन शब्दों में कोसें? भारत के विद्रोही नवयुवक-समाज को काले कानूनों का विधाता कहकर उन्हें गाली देना उतना ही दौरात्मपूर्ण है जितना कि किसी चरित्रवती पतिव्रता स्त्री को व्यभिचारिणी कहना।
राजनीतिक स्वतंत्रता की भावना कैसे फैली? सिर कटानेवालों ने उसे प्रचारित किया या ‘जी हुजूर’ कहने वालों ने? खाली अखबारों के कॉलम रंगने से ही क्या उस भाव का विस्तार हो सकता था?
…हम सशस्त्र क्रांति के उपासक नहीं हैं। हम भी उन पढ़े-लिखे मूर्खों में गिने जाते हैं जो व्यावहारिकता को छोड़ना नहीं चाहते। लेकिन हमारे हृदय में आदर और भक्ति है, उन आदर्श पुजारियों के प्रति, जो देश-काल के बंधनों को काटकर फेंक देते हैं। उनका काम क्या रंग लायेगा, इसकी उन्हें चिंता नहीं - वे विद्रोह के पुतले हैं। वे भारतवर्ष की अंतर-अग्नि की चिनगारियां हैं। वे इस बात का जबर्दस्त प्रमाण हैं कि राजनीतिक असमानता के मैदान में पूरब पश्चिम के आगे कभी घुटने न टेकेगा।
…राजनीतिक दांव-पेंच में पड़कर हमें कम-से-कम इतना तो न भूलना चाहिए कि वर्तमान काल ही सब कुछ नहीं है, भूत और भविष्य काल भी कोई वस्तु है। जार्ज वाशिंगटन एक विद्रोही था और राष्ट्रनिर्माता भी। लेनिन साइबेरिया-निर्वासित कैदी था और राष्ट्र निर्माता भी। (जारी)