1923(20 मार्च)। गणेशशंकर विद्यार्थी ने फतेहपुर की अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने लिखित रूप में वही दोहराया, जो उन्होंने फतेहपुर जिला कांग्रेस के सभापति के पद से दिये गये अपने भाषण में कहा था।
उन्होंने लिखा – “मैं नॉन-वायलेंस को शुरू से अपनी पॉलिसी मानता रहा हूं, धर्म नहीं मानता रहा। मैंने अपने व्याख्यान में यह दिखाया कि मनसा और कर्मणा, अहिंसा साधारण मनुष्यों का सहज स्वभाव नहीं है और इसलिए राजनीतिक संग्राम में उसे अपना साधारण हथियार नहीं बनाया जा सकता। लेकिन इसके साथ यह भी स्पष्ट किया कि मैं अहिंसा को धर्म नहीं मानता तथापि मैं वर्तमान अवस्था में अहिंसा को राजनीतिक संग्राम का सर्वोत्तम साधन मानता हूं।”
अदालत ने हिंसावाद के लिए लोगों को उकसाने के आरोप में फैसला सुनाया - दफा 124 ए के अभियोग में एक साल की सजा और 100 रुपया जुर्माना! जुर्माना अदा न करने पर तीन महीने की अतिरिक्त सजा।
गणेशशंकर को सजा की खबर, उनके उसी बयान के साथ 26 मार्च, 1923 को साप्ताहिक ‘प्रताप’ में छपी।
1924 में गणेशशंकर विद्यार्थी के जेल से छूटने के कुछ ही दिन बाद युवा सरदार भगत सिंह ‘प्रताप’ कार्यालय पहुंचे। वह नेशनल कालेज, लाहौर में पढ़ाई कर रहे थे। अचानक वह पारिवारिक समस्या में फंसे। उन्होंने कालेज के प्राध्यापक जयचन्द्र विद्यालंकार से परामर्श लिया। उन्होंने भगत सिंह को कानपुर जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिलने को कहा। उन्हें एक परिचय पत्र भी दिया। सो पढ़ाई छोड़कर युवा भगत सिंह गुप्त रूप से कानपुर पहुंच गये। वहां पहुंच कर उन्होंने विद्यार्थीजी को बताया कि उन्होंने तन, मन और धन से सेवा का संकल्प लिया है। इसीलिए वह विवाह नहीं करना चाहते। देश-सेवा के लिए यह नितांत आवश्यक है कि वह सभी प्रलोभनों से परे रहें और वैवाहिक बंधन से भी बचे रहें। विद्यार्थीजी ने कहा : “देखो, स्वतंत्रता के लिए काम करना एक परवाने की तरह होता है जो शमा को प्यार करता है, शमा की लपटों में जल कर मर जाता है। वह कभी लौट कर दूसरे परवानों को नहीं बता पाता कि शमा किस प्रकार जलती है और वह भी उसमें जल कर मर सकते हैं।”
भगत सिंह ने कहा : “‘मैं ऐसे ही जल मरने के लिए कृतसंकल्प होकर आया हूं, ताकि देश के लिए अपनी जान दे सकूं।” उन्होंने वायदा किया कि जो गणेशजी कहेंगे, सो वह करेंगे। एक सच्चा देशभक्त एवं स्वतंत्रता सेनानी बनने के लिए वह उनसे दीक्षा लेंगे। एक परवाने की भांति स्वतंत्रता रूपी शमा पर अपने को बलिदान कर देंगे।
भगत सिंह अपना कल्पित नाम बलवंत सिंह रखकर, ‘प्रताप’ में काम करने लगे। अपने खाली समय में वह विश्व की महान क्रांतियों का रोमांचकारी इतिहास पढ़ते थे। समाजवाद पर पुस्तकों का अध्ययन करते थे। ‘प्रताप’ कार्यालय अन्य क्रांतिकारियों का भी संगम था। वहीं भगत सिंह का संपर्क बटुकेश्वर दत्त, चन्द्रशेखर आजाद, जोगेश चन्द्र चटर्जी, विजय कुमार सिन्हा आदि से हुआ।
‘प्रताप’ की सेवा में रहते हुए भगत सिंह ने अपने तथा दूसरों के लिए प्रकाशनों का वितरण किया। एक चार पृष्ठों की पुस्तिका, जो संभवतः शचीन्द्रनाथ सान्याल ने लिखी थी और केन्द्रीय क्रांतिकारी समिति के प्रधान विजय कुमार सिन्हा के नाम से छपी थी, बंगाल, बिहार और युक्त प्रांत में खूब वितरित हुई। इस पुस्तिका को भारतीय क्रांतिकारी दल के उद्देश्य-पत्र, खंड एक, भाग एक के रूप में प्रकाशित किया गया। दशहरे के अवसर पर भगत सिंह ने अपने पांच साथियों के साथ ‘प्रताप’ प्रेस द्वारा प्रकाशित ‘स्वराज्य साहित्य’ के वितरण का बीड़ा उठाया। इन पुस्तिकाओं ने हिन्दी जगत में सनसनी पैदा की। भगत सिंह ने कानपुर में ही 1924 की भीषण बाढ़ के दौरान पीड़ितों के शिविरों में सहायतार्थ कार्य किया। कानपुर में दो माह रहने के पश्चात वह कानपुर के नजदीक ही किसी नेशनल स्कूल के प्रधानाध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। (जोगेशचन्द्र चटर्जी के अनुसार यह स्कूल अलीगढ़ जनपद में था, परंतु अधिक संभावना कानपुर के निकट होने की है।)
भगत सिंह के लाहौर से चले जाने के बाद उनकी दादी की तबीयत बहुत खराब हो गयी। अतः उन्होंने एक बार भगत सिंह को देखने की इच्छा प्रकट की। गणेशशंकर विद्यार्थी और अन्य साथियों के बहुत समझाने-बुझाने पर भगत सिंह लाहौर वापिस जाने के लिए इस शर्त पर तैयार हुए कि उन्हें विवाह करने के लिए कोई बाध्य नहीं करेगा।
सन् 1925 में वह लाहौर अपनी दादी के पास पहुंचे, परंतु दादी के स्वस्थ हो जाने पर भी वह फिर कानपुर नहीं लौटे। कानपुर में उनकी इतनी दीक्षा हो गयी थी कि वह लाहौर में ही रहकर अपना कार्य संपन्न कर सकते थे। भगत सिंह ने युक्त प्रांत तथा अन्य प्रांतों के क्रांतिकारियों से अपना संपर्क बनाया। फलस्वरूप वह हिन्दोस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन बनाने में सफल हुए। (जारी)