एक बात समझ लीजिए।

बिहार की खेती में कैश क्रॉप की प्रवृत्ति नहीं के बराबर है। इसका मतलब यह नहीं कि यहां किसान संतोषी प्रकृति के है, यह भी नहीं कि उनकी जरूरत कम में पूरी हो जाती है, बल्कि प्रति परिवार खेत ही यहां कम है। अधिक तरक्की के लिए और नगदी फसल कमाने की अभिलाषा हो , इसका अवसर बिहार में सीमित है।

बिहार में बैंक में जमा और ऋण का अनुपात विलोम है। महाराष्ट्र में अच्छा है। हालाकि यह खेती के लिए कर्ज का डेटा नहीं है।

बैंक से खेती के लिए कर्जा, बिहार में काफी कम मिलता है। सामाजिक मजबूरी निभाने में, या बीमारी में वे से कर्ज उठाते हैं। साहूकार से ही ज्यादातर कर्ज मिलता है। काफी ऊंचे ब्याज / सूद पर कर्ज उठा कर खेती में ज्यादा पूंजी निवेश के आधार पर अच्छे मुनाफे की आकांक्षा बिहार में नहीं देखने में आती है। खेती करते रहना दुष्कर है।

सब्जी उत्पादन, फल उत्पादन की अच्छी पट्टी (लंबा क्षेत्र) होते हुए भी या मकाई में पूसा बीज के चलते बड़े इलाके में मक्के की बड़ी अच्छी खेती का वातावरण होते हुए भी आम तौर पर बिहार में खेती निर्वहन भर के लिए होता है। मिल गया तो बिहार के किसान भी किसान बचत बॉन्ड से या अन्य बैंक ऋण भी लेते हैं।

तरक्की के लिए, और मुनाफा के लिए यहां किसान बैंक से ऋण लेकर खेती में निवेश करें और इससे धोखा हुआ तो, आकस्मिक अवशाद में डूब जाएं, यह ना के बराबर है।

आत्म हत्या का मनोविज्ञान समझना होगा।

ऋण के जाल और आकस्मिक तरक्की की आकांक्षा में, आकस्मिक अवसाद होता है। भले ही बिहार के किसान इस मनोवैज्ञानिक अवसाद में नहीं आते हैं। बिहार के किसान स्थाई गरीबी और ऋण जाल के दुश्चक्र में रहते ही आए हैं।

ताजा एक फेनोमेना भी है। हजारों, सैकड़ों एकड़ पर नियंत्रण की सामंती खेती का वातावरण, लगातार टूट कर, बिहार में यह काफी कम इलाके में कायम है। भूमि संकेद्रण की सत्ता या सामंती प्रथा से खेती की परंपरा अक्षुण्य है। फिर भी घाटे की खेती और इसकी वजह से खेती या खेतिहर का उजड़ना बदस्तूर जारी है। इसमें आकस्मिक अवसाद का वातावरण कम है। एकबारगी गवांए जाने का शोक अन्य प्रांतों में ज्यादा है।

बिहारी किसान, जल संसाधन के बावजूद सूखा झेलते रहते हैं। सामंती कारणों से बाहर पलायन करने की छूट भी कम इलाकों में थी।

पर अब सब कुछ काफी बदला है।

अब जाकर माइग्रेशन / मौसमी पलायन की स्वातंत्रता, लोग ले पा रहे हैं। २०,३० वर्षों में यह तेज हुआ है।

अर्थात, बिहार के गांव के लोग अभी— अभी तो दयनीय गरीबी से बाहर निकल कर, देश दुनिया में घूम कर, मेहनत मजदूरी करके और हाड़ मांस गला कर अपने परिवार का भरण पोषण कर पा रहें। (इस क्रम में श्रमशीलता का परचम भी लहरा रहे हैं और कुछ मारे— मारे भी फिरते हैं।)

फिर भी खेती तो कर रहे हैं। यह सुरक्षा बीमा कवच के रूप में जारी खेत। घर पर बूढ़े, बच्चे, महिलाएं जो बच जा रही हैं, उनके लिए भोजन की कुछ सुरक्षा के लिए खेती करते जाते हैं। घाटे कि खेती भी करते जाते हैं।

काम करने लायक एक करोड़ आबादी यानी गावों के काम करने लायक प्रत्येक दो में से एक के पलायन की वजह से,कम मजदूर बच जाते हैं। यह उनकी सामूहिक सौदाकारी को बढ़ाता है। इस तरह पलायन करने से जो बचे रह गए हैं,वे बिहार में मजदूरी की वास्तविक दर भी बढ़वाते गए हैं।

यह कोई संतोष जनक अवस्था नहीं है।

गरीबी की आम परिस्थितियों में भी हम आवशाद की खास अवस्था से बचे हुए हैं। आत्महत्या कि और नहीं हैं। इस अवस्था की सराहना तो करें। परन्तु गरीबी से समझौता,अभाग्य से रिश्ता, संतोष आदि एक तात्कालिक बात के चलते, बचते हुए हमें तरक्की की राह पकड़नी है।