बिहार की मौजूदा राजनीति के संदर्भ में यह समझना जरूरी है कि राजद का पूरा व्यक्तित्व, चरित्र या वजूद लालू प्रसाद की लंबी अनुपस्थिति के साथ धूमिल होता गया है. लालू प्रसाद ने सतत प्रयास से यत्नपूर्वक जातीय राजनीति को गरीबों की राजनीति और देश की सांप्रदायिकता (भाजपा) विरोधी राजनीति के साथ जोड़ा. इससे राजद की बिल्कुल एक अलग छवि का निर्माण हो सका. उसे ख़ास पहचान मिली और प्रशंसा भी. मगर चमक और तेजस्विय का वह दौर या सिलसिला बरकरार नहीं रह सका. अब विधान्सभा के आसन्न चुनाव में लालू विहीन राजद के सामने कठिन चुनौती है. युवा तेजस्वी यादव की नेतृत्व क्षमता भी कसौटी पर है. पर अब महागठबंधन के सहभागी कांग्रेस के अलावा वाम दल भी साथ आ चुके हैं, तो लगता है राजद ने पहली बड़ी बाधा पार कर ली है; और फिर से राजद की छवि सुधरने की गुंजाईश दिखने लगी है. ‘रालोसपा’ और ‘हम’ हो सकता है जातीय स्तर पर कुछ ताकत देते. मगर सिर्फ जातीय जोड़-तोड़ से हमेशा जीत नहीं होती, बल्कि अगर तेजस्वी यादव अपनी जातीय पहचान को चमकाने भुनाने में लगे रहे तो उनके विरोध में अन्य मध्य जातियों का गठबंधन ज्यादा आक्रामक हो जाएगा. और चुनाव में विफलता का ठीकरा तेजस्वी के सिर पर ही फूटेगा.
क्षेत्रीय दलों के साथ हमेशा यह समस्या रही है कि उनकी कोई स्पष्ट राष्ट्रीय पहचान नहीं बन पाती. अपने क्षेत्र में बहुत प्रभावी होते हैं, मगर राष्ट्रीय राजनीति में उनका ढुलमुल रवैया उनकी छवि को कमजोर करता है. देश के लिए महत्वपूर्ण मुद्दों पर वे कोई स्पष्ट स्टैंड भी नहीं ले पाते; और महज सत्ता के लिए इस या उस राष्ट्रीय दल से तालमेल कर लेते हैं. मायावती की बसपा किसी के साथ हो सकती है. मूलतः झारखंड केन्द्रित झामुमो भी भाजपा के साथ केंद्र और राज्य में सत्ता में भागीदारी कर चुका है. ज्यादातर क्षेत्रीय दलों की यही स्थिति है. सरकार में शामिल होकर ही वे अपनी स्थिति मजबूत करते हैं. इसलिए उनको भाजपा या कांग्रेस, किसी के साथ हो जाने से परहेज नहीं होता.यह और बात है कि अपने इए फैसलों को सही बताने के लिए वे तर्क भी गढ़ लेते हैं.
मगर इस लिहाज से राजद अन्य क्षेत्रीय दलों के इस चरित्र से अलग रहा है. वर्ष 1990 के बाद से वह लगातार भाजपा के खिलाफ रहा है. और यह भाजपा की समस्या भी रही. बिहार में कभी जदयू तो कभी राजद को साथ लेने का विकल्प भाजपा को नहीं मिला. उसकी मजबूरी है कि उसे जदयू के साथ ही रहना है.
बेशल राजद की पहचान जाति विशेष से जुड़ी है. लेकिन भारतीय समाज की विशिष्ट संरचना (जिसमें कथित शूद्र जातियों के बड़ा हिस्सा गरीब है) के कारण उसकी पहचान गरीबों की पक्षधर की भी बनी हुई है. साथ ही सांप्रदायिकता विरोधी पहचान भी. इन दोनों के जोड़ से ही कोई राष्ट्रीय छवि बन पाती है और लालू यादव ने इसे बहुत अच्छी तरह साधा था. आज जब तेजस्वी यादव (राजद) के साथ वामदलों का गठबंधन होता है, बिना किसी तनाव के सीटों की सेटिंग होती है, इसे बहुत आशाजनक तस्वीर के रूप में देखा जा सकता है. ‘रालोसपा’ और ‘हम’ खास जातियों के आधार पर बिहार की राजनीति में बने हुए हैं. ये भाजपा के साथ, महागठबंधन के साथ कहीं भी हो सकते हैं. उनसे अलग होने में हो सकता है, कुछ जातियों के वोट का नुकसान हो. पर फायदा बहुत बड़ा है. आज यह ‘महागठबंधन’ वाम दलों के साथ मिल कर एक मुकम्मल विपक्ष बन गया है.
अब तेजस्वी यादव भले मुख्यमंत्री का चेहरा हों, उन्हें चुनावी गठबंधन में शामिल सभी दलों के प्रमुख नेताओं के नेतृत्व के साथ एकाकार होकर चलने की समझदारी दिखानी चाहिए. इससे उनका कद भी बड़ा होगा और उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ेगी. ‘महागठबंधन’ में शामिल दल और उनके नेता निजी अहन को तिलांजलि ले सकें, तभी वे एनडीए को एक मजबूत चुनौती दे सकेंगे, और बिहार को एक नयी सरकार भी.
 
                     
                    
                     
             
                     
                     
                     
                     
                                     
                                     
                                    