पुराणों के अनुसार दिति और अदिति ब्रह्मा के पुत्र दक्ष-प्रजापति की पुत्रियाँ हैं. दिति की संतानों को दैत्य और अदिति की संततियों को देवता कहा गया. दोनों बहनों की संततियों के बीच वर्चस्व और अहं का युद्ध चलता रहता. दैत्य हर मायने में देवताओं से बीस पड़ते. एक बार जब (महा-) बलि के नेतृत्व में दैत्यों से वे परजित हो गए और पूरे ब्रह्मांड पर दैत्यों का अधिकार हो गया तो वे अपने सबसे शक्तिशाली देवता विष्णु की शरण में गए. विष्णु ने उन्हें चतुराई और कूटनीति से काम करने का सुझाव दिया. सुझाव के अनुसार उन्हें दैत्यों को फुसलाकर समुद्र-मंथन के लिए तैयार करना और उसमें से निकले अमृत सहित तमाम रत्नों को केवल देवताओं के लिए हड़पने का काम विष्णु को करना था.
समुद्र-मंथन में से अनेक मूल्यवान वस्तुओं में से एक थी सुरा (देवी). देवताओं ने दैत्यों के समक्ष सुरा को अपनाने का प्रस्ताव रखा, जिसे दिति की संततियों ने इनकार कर दिया तो लक्ष्मी के साथ देवताओं ने सुरा को भी ले लिया. उस समय से दैत्यों को‘असुर’और देवताओं को ‘सुर’कहा जाने लगा.
(गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित बाल्मीकि रामायण- पैंतालीसवां सर्ग, श्लोक- 37-38)
अगर हम तटस्थता के साथ इन मिथकीय चरित्रों पर विचार करें तो हमारे लिए असुरों को श्रमिक (जन) और सुरों को संपन्न (वर्ग) के रूप में पहचानना कठिन नहीं होगा. विडंबना यह है कि विद्या की देवी सरस्वती (ब्रह्मा की मानस पुत्री) और सागर मंथन से निकलीं धन की देवी लक्ष्मी (विष्णु की सहगामिनी) दोनों अपने जन्म-काल से ही प्रभु वर्ग के कब्जे में रही हैं और इसलिए ये दोनों देवियाँ निम्नवर्ग/श्रमिक वर्ग के खिलाफ देवताओं के साथ सांठ-गांठ में लिप्त रही हैं.
यहाँ यह सवाल भी किया जा सकता है कि दैत्यों या असुरों को जब न तो समुद्र-मंथन में से निकली अप्सराओं सहित किसी भी पराई स्त्री में कोई रुचि थी और न मद्य में तो देवता उनसे श्रेष्ठ कैसे कहे जा सकते हैं?