ओणम- मूलत: मलयाली लोगों का पर्व है, जो फसल तैयार होने के समय, मलयाली कैलेंडर के अनुसार मनाया जाता है और जिसमें हर धर्म-संप्रदाय के मलयालमभाषी लोग शामिल होते हैं. प्रत्येक पर्व की तरह इस के अंतर में भी एक मिथक छुपा हुआ है.

कथा के अनुसार बहुत पहले, किसी समय में केरल क्षेत्र में बलि नाम के असुर राजा का शासन हुआ करता था. दिति और कश्यप के वंशज दैत्यराज हिरण्यकश्यप राजा बलि के परदादा और प्रहलाद उनके दादा थे. राजा बलि के समय को उस राज्य का स्वर्ण-युग कहा जाता है. राज्य के घर-घर में संपन्नता का वास था. पूरे राज्य में न तो किसी प्रकार का भेदभाव था और न कोई अपराध. बलि इतने शक्तिशाली थे कि युद्ध में इन्हें कोई भी पराजित नहीं कर सकता था. इन सब गुणों के कारण उन्हें महाबली कहा जाने लगा. सबसे बड़ी बात यह कि महाबली विष्णु के भी भक्त थे. लेकिन देवता ही कैसा, जो अपने ही भक्तों अथवा अच्छे गुणों वाले मनुष्यों और उनकी खुशहाली से ईर्ष्या न करे!

महाबली की बढ़ती लोकप्रियता और राज्य की संपन्नता से खतरा महसूस करते हुए देवताओं में खलबली मच गई थी. देवताओं के कहने से उनकी माता अदिति ने सबसे शक्तिशाली विष्णु से महाबली के अंत की अनुशंसा की. युद्ध में यह कार्य असंभव जानते हुए विष्णु ने छल का सहारा लिया. एक वामन ब्राह्मण का रूप धर वे महाबली के समक्ष ठीक उस समय उपस्थित हुए, जब राजा रोज की तरह पूजा-पाठ से निवृत्त हो कर विद्वानों/ब्राह्मणों को दान करने बैठे थे. महाबली के कहने से वामन साहब ने तीन डग जमीन दान देने की मांग की. गुरु शुक्राचार्य के मना करने के बावजूद महाबली ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. विष्णु ने तत्काल अपना आकार आकाश तक बढ़ाया और पहले डग में पृथ्वी और दूसरे में आकाश को नापकर महाबली से पूछा कि तीसरा डग कहाँ डालूँ.

राजा जान गए कि उनके साथ छल हुआ है. फिर भी वचन की रक्षा करते हुए उन्होंने यह सोचकर अपना सिर विष्णु के पैर के नीचे कर दिया कि यदि ऐसा नहीं किया तो तीसरे पग पर पूरे ब्रह्मांड का विनाश हो जाएगा. वामन विष्णु ने अपना तीसरा डग उनके सिर पर रखा और उसके वार से महाबली को उनके राज्य से विस्थापित करके पाताल में धकेल दिया. विडंबना देखिए कि बाद में, खुद को दयावान कहलाने के लिए विष्णु ने उनसे वर मांगने को कहा. और महाबली के आत्मसम्मान और प्रजा के प्रति उनके प्रेम को देखिए कि उन्होंने केवल यह मांग लिया कि उन्हें वर्ष में एक बार अपने लोगों को बीच आने और उनके साथ दस दिन बिताने का अवसर प्रदान किया जाय.

इस कथा के अनुसार ओणम प्रारंभ होने के दूसरे दिन महाबली के आने का दिन हुआ करता है और अंतिम दिन वे वापस पाताल लौट जाते हैं. दस दिनों तक लोग किसी मूर्ति की पूजा किए बिना, अपने महाबली राजा की उपस्थिति को महसूस करते हुए, हर्षोल्लास और उत्साह के साथ यह त्योहार मनाते हैं.


दोस्तो! इस कथा से क्या महसूस होता है! क्या आपको इसमें अदिति की संतति देवताओं की क्रूरता नहीं दिखाई देती! और विष्णु को क्या कहा जाय! उन्हें अपने देवताओं के स्वार्थ के आगे अपने महान भक्त प्रहलाद और उनके पोते महाबली, जो खुद उनका भक्त है, के ऊपर तनिक भी दया नहीं आती और छल से उसकी उदारता का नाज़ायज़ लाभ लेकर, बिना किसी अपराध के, उसी से, उसके खुद का देश-निकाला दान में मांग लेते हैं. यह घोर भाई- भतीजावाद का आरंभिक और नायाब नमूना है. इससे यह निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि आम जन की खुशहाली उस देवता यानी आज के प्रभु वर्ग को फूटी आँख नहीं सुहाती. उन्हें यह डर हमेशा सताता रहता है कि अगर साधारण मनुष्य सुखी हो गया तो इस प्रभु वर्ग को कौन पूछेगा और उनका ‘भक्त’ कौन बनेगा! ***

यहाँ एक बात और. इधर के वर्षों में वर्तमान प्रभु वर्ग से जुड़ी संस्थाओं ने इस मिथक को उलट-पलट करने का लगातार प्रयास किया है. उन्होंने उनके ही पुराणों में वर्णित मिथक को झुठलाते हुए एक अलग कहानी गढ़ी है कि ओणम एक विशुद्ध हिंदू पर्व है और महाबली एक विदेशी शासक था. गौरी लंकेश की हत्या की घटना के कुछ दिनों बाद गौरी जैसे लेखकों को तथाकथित रूप से धमकाने वालीं, हिंदू ऐक्य वेदी (हिंदू यूनिटी फ्रॉन्ट) की नेत्री के पी शशिकला ने कहा है, “वामन ने एक साम्राज्यवादी शासक महाबली से केरल को आज़ाद कराया. इसलिए वामन को एक स्वाधीनता सेनानी का सम्मान दिया जाना चाहिए.” यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि (सभी धर्मों-संप्रदायों के) मलयालमभाषी लोग क्या चाहते हैं.