आदित्य कुल के रघुवंशियों में यज्ञों को लेकर विशेष आग्रह रहा है. सगर के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े का इंद्र द्वारा अपहरण और उसकी खोज के दौरान उनके पुत्रों की मृत्यु की बात सभी जानते हैं. मैं यहाँ दशरथ के परदादा के दादा (और नहुष के पिता) अम्बरीष के एक यज्ञ का विवरण देना चाहता हूँ. राजा अम्बरीष ने एक यज्ञ की तैयारी की. तब इंद्र से उनकी बनती नहीं थी. इंद्र ने यज्ञ के बलिपशु को एक रात पहले चुरा लिया. पुरोहित ने कहा कि जो राजा बलिपशु की रक्षा नहीं कर सकता, अनेक प्रकार के दोष उसे नष्ट कर डालते हैं. आपसे यह घोर पाप हो गया है और अब आप बलि के लिए उस चुराए गए बलिपशु के स्थान पर ‘किसी पुरुष पशु को खरीद लाओ’, तभी इसका प्रायश्चित हो पाएगा (‘प्रायश्चितं महद्ध्येतन्नरं वा पुरुषर्षभ!/ आनयस्व पशुं शीघ्रं यावत् कर्म प्रवर्तते.)
राजा अंबरीष के यह पूछने पर कि बलि के लिए ‘नर-पशु’ का कहाँ से प्रबंध किया जाय तो पुरोहित ने बताया कि उत्तर में भृगु वंशीय ऋषि ऋचीक के पास जाइए और उनसे उनका पुत्र मांगिए. ऋत्विक के आज्ञानुसार राजा अंबरीष ऋचीक ऋषि के पास गए और यज्ञ में बलि के लिए उनसे उनका पुत्र मांगा. ऋषि ने कहा कि ज्येष्ठ पुत्र पिता को प्यारा होता है, इसलिए उसे मैं नहीं दे सकता. उनकी पत्नी ने कहा कि सबसे छोटा पुत्र माता को प्रिय होता है, मैं उसे नहीं दे सकती. तो राजा ग्यारह सौ गौवें देकर बलिपशु के रूप में मँझले पुत्र शुन:शेप को लेकर चला. चलते-चलते रात हो गई तो उन्होंने रात्रि-विश्राम पुष्करिणी में किया. इस बीच मँझला पुत्र अपने प्राण बचाने का उपाय बेचैनी से खोज रहा था. उस क्रम में याद आया कि उसके मामा विश्वामित्र पुष्करिणी में ही तपस्यारत हैं.
वह रात में चुपके-से उनके पास जा पहुँचा. विश्वामित्र उसे लेकर राजा के साथ यज्ञ-भूमि में गए और यज्ञ-बलि की वैकल्पिक विधि बताकर बच्चे को बचा लाए.(बालकांड, सर्ग-61). ध्यान देने योग्य बात है कि लगभग यही घटना वेदों के बाद रचित ब्रह्मन में भी, थोड़े सी भिन्नता के साथ मिलती है, ‘वरुण के सामने एक राजा के पुत्र की बलि चढ़ने वाली है; लेकिन एक ब्राह्मण ने अपने पुत्र शुनहशेप को राज-पुत्र के स्थान पर बलि देने हेतु बेच दिया, लेकिन अश्विनों ने उसके विकल्प के रूप में एक सोम के पौधे को प्रस्तुत कर के बच्चे को बचा लिया.वाल्मीकि रामायण में शुन:शेप के ब्राह्मण पिता का नाम जमदग्नि और अश्विनों के स्थान पर उसके त्राता का नाम विश्वामित्र जोड़ दिया गया है.
अब राजा दशरथ के अश्वमेध यज्ञ की बात पर आते हैं. यज्ञ में पुरोहितों ने इसके व्यय एवं आर्यावर्त के ब्राह्मणों और अतिथि राजाओं की दक्षिणा में पूरा का पूरा राजकोष खाली करवा दिया था. पूरे वर्ष भर राज-काज छोड़, केवल यज्ञ होता रहा. पहले एक घोड़ा छोड़ा गया, जो एक वर्ष के बाद लौटा तो भांति-भाति के कर्मकांडों के बाद यज्ञ-स्थल पर इक्कीस यूपों (खंबों) से बँधे तीन सौ अन्य पशुओं के साथ उस घोड़े को बाँधा गया. ‘रानी कौसल्या ने वहाँ प्रोक्षण आदि के द्वारा सब ओर से उस अश्व का संस्कार करके बड़ी प्रसन्नता के साथ तीन तलवारों से उसका स्पर्श किया. तदंतर कौसल्या देवी ने सुस्थिर चित्त से धर्मपालन की इच्छा रखकर उस अश्व के निकट एक रात निवास किया. तत्पश्चात होता, अध्वर्यु और उद्गाता ने राजा की (क्षत्रियजातीय) महिषी ‘कौसल्या’, (वैश्यजातीय स्त्री) ‘वावाता’ तथा (शूद्रजातीय स्त्री) परिवृत्ति- इन सबके हाथ से उस अश्व का स्पर्श कराया.’
अंत में पुरोहित द्वारा नियमानुसार बलि-पशुओं के पकाए गए मांस की आहुति देकर, राजा के पाप दूर हों, इसलिए दशरथ को बुलाकर विधिपूर्वक उसके धुएँ की गंध को सुंघाया गया. यज्ञ पूरा होने पर राजा दशरथ ने दक्षिणा रूप में अयोध्या से पूर्व दिशा का सारा राज्य होता को, पश्चिम दिशा का सारा राज्य अध्यर्वु को, ब्रह्मा को दक्षिण दिशा का और उद्गाता को उत्तर दिशा का राज्य सौंप दिया.
इस प्रकार राजा ने अपने अधिकार की सारी भूमि ऋत्विजों को दान कर दी. दान में सारी जमीनें ले लेने के बाद सभी ऋत्विज बोले, ‘महाराज! केवल आप ही संपूर्ण पृथ्वी की रक्षा करने में समर्थ हैं. हममें इसके पालन करने की शक्ति नहीं, अत: हमारा भूमि से कोई प्रयोजन नहीं. हम तो वेदों के स्वाध्याय में ही लगे रहते हैं, अत: आप इस भूमि का कुछ निष्क्रय(मूल्य) ही दे दें. नृपश्रेष्ठ! मणि, रत्न, सुवर्ण, गौ अथवा जो भी वस्तु आपके पास हो, वही हमें दक्षिणारूप में दे दीजिए और इस धरती को वापस ले लें. इस धरती से हमारा कोई प्रयोजन नहीं.’
तथाकथित वेदों के पारगामी ब्राह्मणों के ऐसा कहने पर राजा ने उन्हें दस लाख गौएँ, दस करोड़ स्वर्णमुद्राएँ तथा चालीस करोड़ रजतमुद्राएँ अर्पित कीं, जिन्हें ऋत्विजों ने ऋष्यशृंग तथा वसिष्ट को सौंपा और उन्होंने धन का न्यायपूर्ण बँटवारा कर दिया. इसके बाद राजा ने अन्य अभ्यागत ब्राह्मणों को एक करोड़ जम्बूनद सुवर्ण मुद्राएँ बाँटीं. तौ भी एक गरीब भूखा ब्राह्मण बचा हुआ रह गया, जो सामने आया तो राजा ने उसे अपने हाथ का बहुमूल्य आभूषण उतारकर दे दिया. (बालकांड, सर्ग-13)
राजा राम भी वही अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे, जिसके दौरान सीता का भूमि-प्रवेश हुआ. ध्यान देने योग्य बात है कि शम्बूक की हत्या के बाद न तो उन्हें कोई दोष लगा और न किसी पाप के प्रायश्चित की आवश्यकता पड़ी; जबकि रावण जैसे अत्याचारी ब्राह्मण की हत्या से उपजे दोष के शमन के लिए अश्वमेध यज्ञ का आयोजन करना पड़ा. दशरथ की भांति राम के अश्वमेध यज्ञ में भी, जैसा कि ब्रह्मा द्वारा अश्वमेध यज्ञ में दान देने की परंपरा स्थापित की गई थी, संपूर्ण राजकोष खाली कर दिया गया होगा. उसके बाद राजकाज चलाने के लिए, राजा ने क्या किया होगा? निश्चित रूप से प्रजा के ऊपर अतिरिक्त कर लगाना पड़ा होगा, और तब भी कम पड़ा होगा तो दूसरे अधीनस्थ राज्यों से वसूला गया होगा, जिसके बाद वहाँ की प्रजा पर भी अतिरिक्त कर लगाया गया होगा. इसके अलावा आय का अन्य कोई स्रोत तो दिखाई नहीं देता.
वाल्मीकि लिखते हैं, उस समय राजा को प्रजा द्वारा उनकी उपज/आय का छठवाँ हिस्सा कर के रूप में दिया जाता था, जैसा कि दंडकारण्य में ऋषि-मुनि राम से कहते हैं, ‘जो राजा प्रजा से उसकी आय का छठा भाग कर के रूप में ले ले और पुत्रवत प्रजा की रक्षा न करे, उसे महान अधर्म का भागी होना पड़ता है’. (अरण्यकांड, सर्ग-6, श्लोक-11). ध्यान रहे, अश्वमेध यज्ञ से जुड़ा, राजा राम का, वह व्यक्तिगत खर्च था, क्योंकि पाप उन्हें व्यक्तिगत रूप से लगा था. उस व्यक्तिगत पाप के शमन के लिए राजकोष से खर्च लेना किस ‘लोकमत’ और राज-धर्म के अंतर्गत आता है? सोचा जाय तो दूसरे राज्यों से लूट और प्रजा के श्रम-सीकर और युद्ध में बहाए गए रक्त से उपार्जित धन और जनबल पर ही सभी राजाओं के महल का विशाल वैभव, अश्लीलता और ऐश्वर्य टिका रह पाता होगा. जितना बड़ा वैभव उतना बड़ा शोषण. राम भी इसके अपवाद नहीं रहे होंगे.