बालकांड के सर्ग-6 में ही हमें अयोध्या-वर्णन में चार वर्णों का परिचय मिल जाता है, ‘क्षत्रिय ब्राह्मण का मुँह जोहते थे, वैश्य क्षत्रियों की आज्ञा का पालन करते थे और शूद्र अपने कर्तव्य का पालन करते हुए उक्त तीनों की सेवा में संलग्न रहते थे.’ वैसे, सर्ग 5 में ‘स्तुति पाठ करने वाले सूत और वंशावली का बखान करने वाले मागध’ लोगों का भी जिक्र आता है. इसी सर्ग के एक श्लोक में लिखा गया है, ‘अयोध्या में कोई ऐसा नहीं था, जो अग्निहोत्र और यज्ञ न करता हो; जो क्षुद्र, चोर, सदाचारशून्य अथवा वर्णसंकर हो’.

जबकि मनुस्मृति के अनुसार सूत को (क्षत्रिय पुरुष और ब्राह्मण स्त्री से पैदा होने के कारण) व्रात्य/वर्णसंकर माना जाता था. उसी प्रकार शूद्र पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से पैदा हुई चांडाल जाति का भी वर्णन मनुस्मृति में मिलता है(10, श्लोक 8-12),जिसका जिक्र विश्वामित्र-त्रिशंकु प्रसंग में बहुतायत से हुआ है. विश्वामित्र के प्रसंग पर बात करने से पूर्व, उपर्युक्त उदाहरणों के आलोक में यह कहना गलत नहीं कि उस समय अंतरवर्ण/अंतरजातीय विवाह होते थे, लेकिन पुरोहितों द्वारा अमान्य (व्रात्य) माने जाने के चलते उनसे पैदा हुई संतानों के योग से चौथे वर्ण में नई-नई जातियाँ जुड़ती जा रही थीं.

रामायण के अयोध्याकांड में जिस निषाद की चर्चा हुई है, और जिसे शबर (शबरी), वानर (सुग्रीव, हनुमान) या जटायु की तरह हिंदू धर्म से अलग (वर्ण वाह्य) जनजाति माना गया था, मनुस्मृति में उसे हिंदू धर्म के अंतर्गत ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री से पैदा हुआ व्रात्य माना जाने लगा.

आरंभिक वैदिक काल में आर्य और अनार्य, मात्र दो ही वर्णों और एक ही परिवार में कवि, उसके चिकित्सक पिता और पत्थर तोड़ने का काम करने वाली माँ का उल्लेख मिलता है (9, 112), लेकिन उस काल का अंत होते-होते ऋग्वेद के दसवें अध्याय यानी पुरुष सूक्त और उसके बाद से चार वर्णों का उल्लेख मिलने लगता है. (10, 90).

इसका यह भी मतलब है कि किसी भी हाल में रामायण के मौखिक रूप का आरंभ ऋग्वेद के बहुत बाद से ही माना जा सकता है. क्योंकि रामायण में चारों वर्णों का उल्लेख है और यह भी कि पुरोहित ब्राह्मण ही हो सकते थे; तथापि सभी ब्राह्मण पुरोहित नहीं हो सकते. एक बात और कि शुरू से ही अनार्यों, राक्षसों (Antigods) आदि को वैदिक काल में शत्रु और बाद में पुरोहितों द्वारा वंचित और हाशिए पर के समूहों के रूप में चित्रित किया जाता रहा है.

वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में भी वर्णों का उल्लेख मिलता है. जब भरत राम से मिलने चित्रकूट जाते हैं, राम उनसे उनका और अयोध्या का विस्तृत हाल पूछते हैं, ‘तात! तुमने प्रधान लोगों को प्रधान, मध्यम श्रेणी के मनुष्यों को मध्यम और छोटी (जघन्येषु) श्रेणी के लोगों को छोटे (भृत्य) कामों में ही नियुक्त किया है न?..तात! अयोध्या हमारे पूर्वजों की निवासभूमि है; उसका जैसा नाम है, वैसा ही गुण है….अपने-अपने कर्मों में लगे हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सहस्रों की संख्या में वहाँ निवास करते है. वे सब-के-सब महान उत्साही, जितेंद्रिय और श्रेष्ठ हैं….ऐसे अभ्युदयशील और समृद्धिशाली नगर अयोध्या की तुम भलीभांति रक्षा करते हो न?….तात! कृषि और गोरक्षा से आजीविका चलाने वाले सभी वैश्य तुम्हारे प्रीतिपात्र हैं न? क्योंकि कृषि और व्यापार आदि में संलग्न रहने पर ही यह लोक सुखी एवं उन्नतिशील होता है. उन वैश्यों को इष्ट की प्राप्ति कराकर और उनके अनिष्ट का निवारण करके तुम उन लोगों का भरण-पोषण तो करते हो न?’( सर्ग-100)

स्पष्ट है कि यहाँ तीन ही वर्णों का उल्लेख किया गया है. फिर चौथे वर्ण के लोग कहाँ रहते होंगे, इसकी तलाश हम शंबूक के प्रसंग में करेंगे. अभी हम विश्वामित्र के पास चलते हैं. उनके विरोधाभासी कार्यों को देखते हुए इसे बताना कठिन जान पड़ता है कि विश्वामित्र विश्व के मित्र (विश्वमित्र) थे या अमित्र (विश्वामित्र). हमने किसी पहले वाले पोस्ट में देखा है कि वे किस प्रकार पंद्रह-सोलह साल के किशोर राम-लक्ष्मण के कच्चे दिमाग में (जिस प्रकार आज हम किसी खास धार्मिक/राजनीतिक नेताओं को अपने अनुयायी किशोरों के साथ व्यवहार करते देख रहे हैं) स्त्रीद्वेषी और अतिहिंसक विचारों के बीज बो दिए थे. अब यहाँ हम उनके बारे में कुछ और खट्टे-मीठे कर्मों का लेखा-जोखा प्राप्त करने का प्रयास करेंगे.

शेष अगले अंक में..