दशरथ से सत्ताइस पीढ़ी पहले हुए इक्ष्वाकु कुल की ‘कीर्ति बढ़ाने वाले’ एक राजा त्रिशंकु के मन में पता नहीं कैसे तो यह विचार हुआ कि ‘मैं ऐसा कोई यज्ञ करूँ, जिससे अपने शरीर के साथ ही देवताओं की परमगति- स्वर्गलोक को जा पहुँचूँ’. वे वसिष्ठ जी के पास गए तो उन्होंने इसे असंभव बताया. तब वे वसिष्ठ के तपस्यारत सौ पुत्रों के पास गए. उन्होंने भी ऐसा होना असंभव मानते हुए यज्ञ का पुरोहित बनने से मना कर दिया. राजा उनसे बोले कि ‘निराश होकर मुझे किसी दूसरे पुरोहित के पास जाना पड़ेगा’. इसे सुनकर वसिष्ठ के पुत्रों ने त्रिशंकु को चांडाल हो जाने का शाप दे दिया. ‘रात व्यतीत होते-होते त्रिशंकु का शरीर नीला हो गया, कपड़े भी नीले हो गए. प्रत्येक अंग में रुक्षता आ गई. सिर के बाल छोटे-छोटे हो गए. सारे अंग में चिता की राख-सी लिपट गई. विभिन्न अंगों में यथास्थान लोहे के गहने पड़ गए’.
उनकी चांडाल की यह स्थिति देखकर उनके साथ आए उनके पुरवासी उन्हें छोड़कर भाग गए. तब वे विश्वामित्र की शरण में गए. विश्वामित्र की वसिष्ठ से शत्रुता थी और कुछ पहले युद्ध में वे उनसे पराजित भी हो चुके थे. सो, अच्छा मौका देख उन्होंने अपने पुत्रों से यज्ञ करने की आवश्यक सामग्री जुटाने के साथ-साथ ब्राह्मण पुरोहितों को आमंत्रित करने का आदेश दिया. पर उनके शिष्यों ने चारों ओर से घूम आने के बाद कहा कि सभी पुरोहित आ रहे हैं, केवल एक महोदय नाम का पुरोहित और वसिष्ठ के सौ पुत्रों ने आने से इन्कार कर दिया है. विश्वामित्र ने क्रोधित होकर शाप दिया कि वे सभी ‘भस्मीभूत हो जाएँ और सात सौ जन्मों तक मुर्दों की रखवाली करने वाली, निश्चित रूप से कुत्ते का मांस खाने वाली मुष्टिक नामक प्रसिद्ध निर्दय चांडाल-जाति में जन्म ग्रहण करें’.
हो सकता है, वसिष्ठ के पुत्रों के सात सौ जन्मों में से एकआध जन्म अभी बाकी ही हों. जो भी हो, इन उदाहरणों से तो ऐसा लगता है जैसे ये अपने आश्रमों में तपस्या और मोक्ष के बैनर तले कत्लगाह और जातियाँ बदलने/बनाने का कारखाना चला रहे हों.
अब हम रामायण के विवादास्पद शंबूक-प्रसंग को विस्तार से जानने का प्रयास करेंगे. लेकिन उससे पहले एक प्रक्षिप्त सर्ग का प्रसंग, जिसमें एक ब्राह्मण ने एक निर्दोष कुत्ते को मारकर उसका सिर फोड़ दिया था. कुत्ता राज्य-सभा में जाकर राजा राम से बोला, ‘राजा समस्त प्राणियों का रक्षक होता है. वह उत्तम नीति का पालन न करे तो समस्त प्रजा नष्ट हो जाती है. धर्म संपूर्ण जगत को धारण करता है, इसीलिए उसका नाम धर्म है. राजा अपने द्रोहियों को भी धारण करता है और दुष्टों को भी मर्यादा में स्थापित करता है.’ वह विद्वान कुत्ता आगे बोला कि एक ब्राह्मण भिक्षु ने अकारण ही मुझ पर प्रहार कर मेरा मस्तक फाड़ दिया है. इसका न्याय करिए.
ब्राह्मण को बुला कर राम ने क्रोध की निंदा करते हुए उसे समझाया कि ‘क्रोध अत्यंत तीखी तलवार है तथा क्रोध सारे गुणों को खींच लेता है’ आदि इत्यादि. ब्राह्मण सफाई देता है, पर अपनी निर्दोषिता सिद्ध नहीं कर पाता. राम ने सभासदों से दंड के बारे में पूछा. सभा में बैठे भृगु, आंगिरस, कुत्स, वसिष्ठ और काश्यप आदि सहित बहुत से मुनियों ने कहा कि ब्राह्मण अवध्य है, उसे शारीरिक दंड नहीं मिलना चाहिए. तब कुत्ता बोला कि इस ब्राह्मण को कुलपति (महंत) बना दीजिए. इसे सुनकर राम ने उसका महंत के पद पर अभिषेक कर दिया; और फिर पूछा कि यह तो वर था, दंड नहीं, तो कुत्ता बोला कि मैं पिछले जन्म में कालंजर मठ का मठाधीश था. सभी धर्मयुक्त कार्य करने के बाद भी मुझे यह गति प्राप्त हुई, तो फिर ऐसे क्रूर की तो और भी बुरी दशा होगी और यह ऊपर-नीचे अपनी सात पीढ़ियों को नरक में गिराकर ही रहेगा.’(उत्तरकांड- सर्ग 59 और 60 के बीच में प्रक्षिप्त सर्ग दो).
अब आप समझ सकते हैं कि उस राज्य का कैसा दंडविधान (पिनल कोड) रहा होगा. विद्वान कुत्ते के इस दंड-विधान के अनुसार आज के रामभक्त महंतों के अगले जन्म के बारे में सोचकर मेरा तो कलेजा मुँह को आ जाता है.
बहरहाल, अयोध्या से सीता को वन में भेज देने और ‘शत्रुघ्न को मथुरा भेजने के बाद राम, भरत और लक्ष्मण के साथ धर्मपूर्वक राज्य का पालन करते हुए, बड़े सुख और अनंद से रहने लगे’. (प्रमुमोद सुखी राज्यं धर्मेण परिपालयन्). कुछ ही दिनों बाद एक ब्राह्मण अपने मरे हुए बालक का शव लेकर दरबार में आया और विलाप करने लगा कि राम-राज्य में ‘मैंने पूर्व जन्म में कौन-सा ऐसा पाप क्या था, जिसके कारण आज इन आँखों से मैं अपने इकलौते बेटे की मृत्यु देख रहा हूँ. बेटा! अभी तो तू बालक था. केवल तेरह वर्ष दस महीने की तेरी अवस्था थी…. राम के राज्य में तो अकाल मृत्यु की ऐसी भयंकर घटना न पहले कभी देखी गई थी और न सुनने में ही आई थी. निस्संदेह राम का ही कोई महान दुष्कर्म है, जिससे इनके राज्य में रहने वाले बालकों की मृत्यु होने लगी. दूसरे राज्य में रहने वाले बालकों को मृत्यु से भय नहीं है….मेरे बालक को जीवित कर दो, नहीं तो मैं अपनी स्त्री के साथ इस राजद्वार पर अनाथ की भांति प्राण त्याग दूँगा. और ब्रह्महत्या का पाप लेकर तुम सुखी होना.’ (उत्तरकांड, सर्ग- 73).
राम ने अपने मंत्रियों के साथ मार्कंडेय, मौद्गल्य, वामदेव, कात्यायन, जाबालि, गौतम तथा नारद को बुलाया. उन्होंने राम से यह शुभ बात कही, ‘राजन! सत्ययुग में केवल ब्राह्मण ही तपस्वी हुआ करता था. उस समय ब्राह्मणेतर मनुष्य किसी तरह तपस्या में प्रवृत्त नहीं होता था. इसलिए उस युग के सभी अकाल-मृत्यु से रहित और त्रिकालदर्शी हुआ करते थे. त्रेता में क्षत्रियों की प्रधानता हुई और वे भी तपस्या करने लगे….तब मनु आदि सभी धर्मप्रवर्तकों ने ब्राह्मण और क्षत्रिय में एक की अपेक्षा दूसरे में कोई विशेषता या न्यूनाधिकता न देखकर सर्व लोकसम्मत चातुर्वर्ण्य व्यवस्था की स्थापना की ……द्वापर में भी शूद्र का तप करना महान अधर्म माना गया है. महाराज! निश्चय ही आपके राज्य की किसी सीमा पर कोई खोटी बुद्धि वाला शूद्र महान तप का आश्रय ले तपस्या कर रहा है, इसी कारण इस बालक की मृत्यु हुई है.…अत: आप अपने राज्य में खोज कीजिए और जहाँ दुष्कर्म दिखाई देता है, उसे रोकने का प्रयत्न कीजिए.’
राम ने यह सुनकर पुष्पक विमान मंगाया और धनुष-तलवार के साथ उसमें बैठकर पहले पश्चिम, फिर उत्तर, तब पूरब और आखिर में दक्षिण दिशा में गए तो उन्हें शैवल पर्वत के उत्तर भाग में एक सरोवर के किनारे एक तपस्वी नीचे की ओर मुख किए लटका हुआ तप में रत था. उसे देखकर राम ने कहा, ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले तापस, तुम धन्य हो! तुम किस जाति में उत्पन्न हुए हो? मैं दशरथकुमार तुम्हारा परिचय जानने को उत्सुक हूँ…तुम ब्राह्मण हो कि क्षत्रिय? तीसरे वर्ण के वैश्य हो या शूद्र. तुम्हारा भला हो. ठीक-ठीक बताना.’
राम की बात सुनकर ‘नीचे मस्तक किए लटका हुआ वह तथाकथित तपस्वी’ बोला, ‘महायशस्वी राम! मैं शूद्र योनि में उत्पन्न हुआ हूँ और सदेह स्वर्ग जाकर देवत्व प्राप्त करना चाहता हूँ. इसलिए ऐसी उग्र तपस्या कर रहा हूँ. मैं झूठ नहीं बोलता. आप मुझे शूद्र समझिए. मेरा नाम शम्बूक है.’
वह ऐसा कह ही रहा था कि राम ने ‘म्यान में से चमचमाती तलवार खींच ली और उसी से उसका सिर काट लिया. उस शूद्र का वध होते ही सभी देवताओं ने ‘बहुत ठीक, बहुत ठीक’ कहते हुए ‘दिव्य एवं परम सुगंधित फूलों की भारी वर्षा की’ और ‘जिस मुहुर्त में शूद्र को धराशायी किया उसी मुहुर्त में वह बालक जी उठा’.(उत्तरकांड, सर्ग-74, 75, 76).
त्रिशंकु और शंबूक के उदाहरणों से हम यह समझ सकते हैं कि पुरोहितों की इच्छानुसार नहीं चलने पर कभी लोगों को समाज-वहिष्कृत (शाप दे) करके शूद्र बना दिया जाता था अथवा उनकी इच्छा के विरुद्ध यदि आप तप या अध्ययन करते थे, तो उनका सर कलम कर दिया जाता था. और उनके इस अधिकार-क्षेत्र को ज्यादा से ज्यादा विस्तृत करने के लिए; राक्षसों या जंगलों में रहने वाली जनजातियों को मनु के शास्त्र के खूँटे से बांधने के लिए राम को एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया गया; किष्किंधा में वाली को मारकर सुग्रीव और लंका में रावण को मारकर विभीषण के माध्यम से पूरे दक्षिण और लंका तक यह संस्कृति लाद दी गई.
विडंबना देखिए कि आदर्श कहे जाने वाले राम सत्ता मिलते ही पूरी तरह उन पुरोहितों के हाथ की कठपुतली बन गए. सीता अपनी शिक्षा और तर्क-शक्ति से पुरोहितों के इन कामों में बाधा पहुँचातीं, इसलिए झूठा आक्षेप लगा, उन्हें षड़यंत्र करके राज्य से निकाल बाहर किया गया. यह भी यहीं से ज्ञात होता है कि राम के समय से ही, गाँवों से बाहर दक्षिण दिशा में, शंबूकों के लिए निवास-स्थान निर्धारित कर दिया गया. इस सर्ग में वर्णित तथ्य (‘तब मनु आदि सभी धर्मप्रवर्तकों ने ब्राह्मण और क्षत्रिय में एक की अपेक्षा दूसरे में कोई विशेषता या न्यूनाधिकता न देखकर सर्वलोकसम्मत चातुर्वर्ण्य व्यवस्था की स्थापना की’) से यह भी सिद्ध हो जाता है कि रामायण भले पहले से मौखिक रूप में चली आ रही हो; (तमाम विद्वानों द्वारा तथागत और बुद्ध जैसे नामों का अन्वय करने के भारी श्रम के बावजूद), मनुस्मृति के समय(100 ईस्वी) में ही इसे लिपिवद्ध किया गया और उस समय इसमें बहुत कुछ जोड़ा-घटाया गया. विडंबना यह भी है कि आज जो विद्वान लोग रोहित वेमुला के पक्ष में खड़े होते हैं अथवा बाबा साहब पर धुआँधार लिखते हैं या फिर प्रेमचंद का यह उद्धरण जब न तब उद्धृत करते हैं (‘क्या बिगाड़ के डर से इमान की बात नहीं कहोगे’), इस मामले में आस्था और परम्परा के नाम पर भयानक चुप्पी ओढ़ लेते हैं. लगता है.