किसी समय एक चिड़ीमार ने चिड़ियों को फंसाने के लिए जंगल में तीन जगह जाल बिछाए। उसके तीनों जाल में कुछ-कुछ पंछी फंस गये। हर जाल में ऐसे पंछी ख़ास तौर से फंस गये थे, जिनने सदा साथ उड़ने और विचरने की कसम खा रखी थी। चिड़ीमार जाल समेटने गया, तो तीनों जगह एक जैसा नया हादसा पेश आया। उसके पहुंचते ही पंछी जाल लेकर आकाश में उड़ चले। यानी तीन जाल लिये पंछियों के तीन समूह। उनके पीछे चिड़ीमार।
पंछियों को जाल समेत आकाश में उड़ते देखकर चिड़ीमार को कुछ गुस्सा आया, लेकिन उससे ज्यादा हंसी आयी। वह कतई खिन्न या हताश नहीं हुआ। वह उनके पीछे दौड़ पड़ा। सब पंछी एक ही दिशा में उड़ रहे थे। इसलिए वह उनके पीछे दौड़ता रहा।
जंगल के सुदूर कोने में कई मुनि-गण उस समय संध्या-वंदन आदि नित्यकर्म करके अपने-अपने आश्रम के बाहर बैठे हुए थे। उन्होंने यह विचित्र लेकिन दिलचस्प दृश्य देखा कि पंछियों के तीन गुट तीन अलग-अलग जाल लिये उड़े जा रहे हैं। उनके साथ कई अन्य छोटे-मोटे पंछी भी जाल के बाहर उनके आगे-पीछे और अगल-बगल उड़े जा रहे हैं। आसमान पर जाल के अंदर जाल के साथ उड़ते और जाल के बाहर उनके ही साथ उड़ते पंछियों को देख जमीन से यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता था कि कौन क्या चाहता है? जाल के अंदर के पंछी मुक्त होना चाहते थे या कि जाल के बाहर के पंछी कैद होना चाहते थे?
नीचे धरा पर उतना ही चकित करनेवाला यह नाजारा भी साथ-साथ चल रहा था कि जमीन से पंछियों को पकड़ने के लिए शिकारी उनका पीछा करते दौड़ रहा था। उसके भी आगे-पीछे एवं अगल-बगल दौड़ते-भागते लोगों का हुजूम! उनका शोर सुनकर यह अनुमान करना मुश्किल था कि वे शिकारी के तरफदार हैं या कि तमाशबीन?
जमीन और आसमान पर साथ-साथ चलते इस दिलचस्प नजारे को देख एक मुनि ने पूछा – अरे, व्याध,हमें यह बात बड़ी विचित्र और आश्चर्यजनक जान पड़ती है कि तू आकाश में उड़ते हुए इन पंछियों के पीछे पृथ्वी पर पैदल दौड़ रहा है। तेरे साथ ये आम लोगों का हुजूम! और, उधर ऊपर भी ऐसा ही दृश्य। जाल में पंछी और उनके साथ जाल के बाहर के पंछी। यह सब क्या है? व्याध बोला – मुने, ये गुटबाज पंछी आपस में मिल गये हैं, अतः मेरे जालों को लिये जा रहे हैं। वे जहां कहीं थकेंगे, एक दूसरे से झगड़ेंगे, और वहीं मेरे वश में आ जाएंगे।
तदनंतर व्याध के आगे-पीछे दौड़ते लोगों का उत्साह ठंडा पड़ गया। जो जहां थका, वह वहीं रुक गया। मुफ्त में मिलते मजे पर ब्रेक लगाया और अपने संगी-साथियों के साथ गांव-घर लौट गया। उधर, काल के वशीभूत दुर्बुद्धि पंछी जाल समेत आकाश में उड़ते-उड़ते थकने लगे, आपस में झगड़ने लगे और लड़ते-लड़ते दूर सुनसान धरा पर गिर पड़े। तीनों जाल में फंसे पंछियों के तीनों समूहों की एक ही गति हुई। और तो और, जो जाल के बाहर उड़ रहे थे वे पंछी भी उन्हीं के आसपास लस्त-पस्त पड़ गये। उसी समय चिड़ीमार पहुंचा। आराम से तीनों जालों को उनमें फंसे पंछियों समेत समेट लिया और बाहर के पंछियों को भी अपनी पकड़ में ले लिया।
सब पंछी समझ गये कि अब चिड़ीमार एक-एक कर सबके पर कतरेगा जैसा कि वह बरसों से करता आ रहा है। उन्हें मजबूरन एक दूसरे के साथ रहना पड़ेगा या एक दूसरे से झगड़ा करना होगा क्योंकि इससे ही तय होगा कि किसके पहले या किसके बाद किसके पर कटने का नम्बर आएगा।
शेष प्रश्न : पाठको, इस लोककथा का मैसेज क्या है? वैसे, एक सवाल इतिहास-पुराण से भी सम्बंधित है कि यह लोकथा किस काल की है? इस कथा के उद्गम-काल और उसके अवसान-काल के आगे-पीछे के कार्य-कारण सम्बंध क्या है? आजकल इस लोककथा का मैसेज क्या है, इस पर आप गम्भीरता सो सोच-विचार के लिए प्रवृत्त हों, इसके लिए यह बताना शायद मददगार हो कि मूलतः कथा महाभारत-काल की है, जिसे विदुर ने अंधे धृतराष्ट्र को सुनाई थी।
हमारा देश जब आजाद हो रहा था और संविधान का निर्माण किया जा रहा था, तब गांव-जवार में बूढ़े-बुजर्ग यह कहानी खूब बांचते थे और पढ़ते-लिखते युवाओं को समझाते थे कि लोकतंत्र में असली मालिक जनता होती है। सो वे खुद सीखें और अपढ़ जनता को समझाएं कि राजतंत्र काल के नेत्रहीन प्रभु और लोकतंत्र की दृष्टिहीन प्रजा में कैसी भिन्नताएं या कितनी समानताएं होती हैं। लेकिन उन पढ़ते-लिखते युवाओं को इंतनी फुर्सत कहाँ कि इसे समझें और अपढ़ जनता को समझाएं।
वैसे, उस वक्त कुछ नाट्यमंडलियों ने इंटरटेनमेंट से एजुकेशन की परिकल्पना के सहारे इस कथा के नाट्य-मंचन के तरह-तरह के प्रयोग किए। कथा-नाटक के बाद पर्दा गिरने के पहले विदुर जैसे सूत्रधार दर्शकों को समझाने की कोशिश करते कि राजतंत्र में राजा और लोकतंत्र में प्रजा मालिक होती है। लेकिन नाटक के दृश्यों पर हंसते-हंसते लोट-पोट धृतराष्ट्र बने दर्शकों को यह कैसे समझ में आता कि वे खुद पर हंस रहे हैं? सो इंटरटेनमेंट की बाढ़ में एजुकेशन के तिनके बह गए! आम जनता तो जान बची, तो लाखो पाए की आदत के सहारे इस समझ के किनारे पड़ गयी कि राजतंत्र में राजा मालिक होते हैं और लोकतंत्र में प्रजा में पढ़े-लिखे लोग मालिक कहलाते हैं। दोनों का माने एक जैसन ही है। बस, तनी-मनी डिफरेंस होगा, लेकिन यह बट नेचुरल है, क्योंकि राजतंत्र और लोकतंत्र के बीच हजारों साल का गैप है।
और, उसी दौर में एक हिंदी फिल्म बनी और रिलीज हुई – हम पंछी एक डाल के। उसका एक टाइटिल सॉन्ग था - ‘हम पंछी एक डाल के, एक डाल के! हम संग-संग डोलें, जी संग-संग डोलें…! तब से देश के लोकतंत्र में चमत्कार होने लगा। देश की प्रजा इस सॉन्ग से अपना मनोरंजन करने लगी और लोकतंत्र के हमारे शासकों नें अपनी राजनीति का टाइटिल सॉन्ग बनाया - हम पंछी एक हाल के, एक हाल के! हम संग-संग डोलें, जी संग-संग डोलें…!