सवर्ण हिंदू या गैर दलित साथियों के डी-क्लास होने की प्रक्रिया पर एक छोटा अनुभव.

तब वाहिनी का ‘सक्रिय सदस्य’ बनने के लिए किसी सघन क्षेत्र में संभवतः कम से कम 15 दिन बिताने की शर्त भी थी. हालांकि हम वैसे भी कार्यकर्ताओं को सघन क्षेत्र जाने के लिए प्रेरित करते थे.

74 आंदोलन में मेरा कार्यक्षेत्र बेतिया, पश्चिम चंपारण था. वाहिनी में भी मेरी पहचान बेतिया से थी. तो मेरे जिले का एक कार्यकर्ता (नाम याद नहीं) वही शर्त पूरी करने के लिए बोधगया आया था. एक जिले का होने के कारण उसे मेरे साथ कर दिया गया. तब मैं गोसाईं पेसरा में था. वह भी आ गया.

पेसरा में बाहर से आये एक्का दुक्का साथियों के ठहरने सोने का इंतजाम अमूमन जानकी जी (दास) के घर रहता था. लेकिन गांव में आंदोलन का केंद्र भुइयां टोली में था. पेसरा गांव का चंदा (अनाज और पैस) बंधन जी के घर पर ही रहता था. बाहर के एकाध साथी हुए तो भोजन भी उनके घर. या बारी बारी से सभी घरों में. यदि कहीं जाना नहीं रहा, तो हम बंधन जी के घर या और किसी के घर दिन का भोजन कर जानकी जी के घर चले जाते. कई बार बंधन जी के दरवाजे पर ही आराम करते. लेकिन बेतिया का वह लड़का खान खाते ही वहां से चलने, जानकी जी के घर, चलने की जिद मचा देता. जाहिर है, इसलिए कि उनका घर-आंगन खुला और हवादार ही नहीं था, सुअर की गंध से मुक्त भी था.

उधर बंधन जी के घर और पूरे टोले में वह गंध व्याप्त रहता था. ऐसा नहीं कि मुझे वह माहौल में पूरी तरह सहज था. पर सहज होना भी एक उद्देश्य था. और उस युवा साथी को भी अभ्यस्त करना था. सो मैं किसी बहाने, उसकी छटपटाहट को समझते हुए भी, उस टोले में अधिक से अधिक समय बिताने का प्रयास करता. जिस दिन उस कार्यकर्ता के वापस लौटने का दिन आया, उसके चेहरे पर झलक रहा था, मानो एक कठिन सजा काट कर निकल रहा हो.

डी-क्लास होना कभी आसान नहीं होता.