उस दिन (2 मई को) रिम्स, रांची में मृत्यु के करीब तीन घंटे बाद ही जरूरी कागजात बन सके. तभी हम उनकी देह को संस्कार के लिए कहीं ले जा सकते थे. मुझे बाहर इंतजार करने कहा गया था. कोई दो घंटे बाद एक चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी गाइड बन कर मुझे रिम्स की पुरानी बिल्डिंग, रिसेप्शन के पास ले गया.
संवेदनहीनता की हद यह कि कनक की लाश पड़ी थी और लिखा पढ़ी में तीन घंटे लग गये. मुझे फिल्म ‘मुन्ना भाई’ याद आ गयी.
बहरहाल वहां एक काउंटर से अत्यंत क्षुद्राक्षरों में हिंदी में छपा फार्म मिला भरने के लिए. नाम, पता, मृत्यु का समय, सूचक का (मेरा) नाम, मुझसे रिश्ता आदि आदि. यह भी कि मृतका को किसी तरह के नशे की-तंबाकू,शराब आदि- की लत तो नहीं थी. थी, तो कितने समय, वर्षों तक रही?
हद यह कि फार्म में इनमें से अनेक जानकारियों को दर्ज करने लायक जगह भी नहीं थी. फिर भी जैसे तैसे भरता गया.
एक जगह अटक गया- मृतक का धर्म क्या है- हिंदू, इसलाम या ईसाई? इससे अलग कोई धर्म है, तो उसे दर्ज करें.
मैंने उस सहयोगी युवक से कहा- मैं तो कोई धर्म ही नहीं मानता, तो यहां क्या लिखूं? वह हैरान! बोला- ऐसा कैसे हो सकता है? मेरे पिछली बात दोहराने पर पूछा- आप क्या चाहते हैं, आपकी पत्नी को जलाया जाये या दफनाया जाये? मैंने कहा- जलाया जाये. उसने कहा- तो झट से हिंदू लिख दीजिए, नहीं तो मियां मान कर दफना देगा सब.
फिर मैं उस काउंटर पर गया, जहां फार्म जमा होना था और फिर वह कागज बनना था. एक स्मार्ट सा युवक बैठा था. मेरी बात सुन कर चकराया. मैंने कहा कि जनगणना फार्म में भी हम कोई जाति या धर्म नहीं लिखते हैं, तो यहां कैसे लिख दें? तब उसने पूछा- नो रिलीजन लिख दें?
मैंने कहा- हां.
आखिरकार वह कागज बना, जिस आधार पर अस्पताल से कनक की मृत देह मिलती और फिर श्मशान में जलाये जाने की अनुमति. उसके बाद भी बाकी औपचारिकताओं में करीब एक घंटा लग गया. तब तक मधुकर जी के प्रयास से हरमू श्मशान घाट में ही संस्कार की व्यवस्था हो चुकी थी. वहां का डिटेल फिर कभी. अभी सिर्फ इतना कि घाट पर कोई धार्मिक कर्मकांड नहीं हुआ और दाह संस्कार कहने को विद्युत शवदाह गृह में, व्यवहार में गैस से हुआ.
हम संघर्ष वाहिनी के (अधिकतर) लोग खुद की पहचान किसी संगठित धर्म से नहीं मानते. किसी जाति से भी नहीं. और मुझे संतोष है कि मरने के बाद भी कनक जी पर किसी धर्म विशेष का ठप्पा नहीं लगा.