सामाजिक और राजनितिक मुद्दों में अग्रणी रांची वासी आलोका कुजूर की दो कविता संग्रहों ‘बिर बुरु के दावेदार’ और ‘नए हस्ताक्षर’ का ऑनलाइन लोकार्पण आदिवासी महिला समूह ‘सखुआ’ के फेसबुक पेज से हुआ. विमोचन में वरिष्ठ दलित महिला साहित्यकार सुशीला टकभोरे और गडचिरोली की आदिवासी महिला साहित्यकार कुसुम ताई अलाम विशेष अतिथि के तौर पर जुडी और आलोका कुजूर के साथ “साहित्य और आदिवासी चेतनारू प्रकृति, नारीवाद और संघर्ष” चर्चा में भाग लिया. चर्चा और विमोचन का संचालन, सखुआ समूह से जुडी लेखिका और पत्रकार मोनिका मरांडी ने किया. ऑनलाइन चर्चा में हिंदी साहित्य जगत में महिला और आदिवासी महिलाओं का स्थान, आदिवासी चेतना में संवेदना, प्रकृति और संघर्ष सहित कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर वक्ताओं ने अपने विचार रखे.
नारी मुक्ति आन्दोलन ने महिलाओं में साहस और आत्मविश्वास की जो नींव रखी उससे प्रेरित हो कर कई महिलाओं ने लेखन कार्य शुरू किया. सुशीला टकभोरे ने भी लेखन में अपने शुरुआती संघर्ष से श्रोताओं को अवगत करवाया. कुसुम ताई अलाम ने बताया की अपने समाज में वह पहली लेखिका थी. आलोका कुजूर भी निरंतर दशकों से लिखने के बाद अपनी किताबें प्रकाशित की. मेनस्ट्रीम हिंदी साहित्य में दलित-आदिवासी महिला लेखन को हमेशा से दरकिनार किया गया है. आज भी लेखकों को अपनी रचनाएँ छपवाने में स्ट्रगल करना पड़ता है. अगर किताब छप भी जाए तो उसका डिस्ट्रीब्यूशन बहुत ही कम होता है. इन वजहों से कई प्रतिभाशाली महिला लेखकों की रचनाएँ बहार नहीं आ रही हैं. सुशीला टकभोरे ने नए लेखकों को प्रेरित किया की वह आगे आयें और पत्रिकाओं में अपनी रचनाएँ प्रकाशित कर पाठकों तक पहुचें.
आदिवासी समाज और संस्कृति के मुद्दों पर आलोका कुजूर ने बताया की निजी प्रकाशकों के अलावा झारखण्ड सरकार को भी आदिवासी लेखकों को प्रोत्साहित करना होगा और झारखंडी संस्कृति और भाषा विभाग का गठन करना होगा. कुसुम ताई अलाम ने दलित महिला साहित्य से प्रेरित हो कर लेखन शुरू किया और उन्होंने बताया की लिखना आदिवासी महिलाओं के लिए अस्तित्व का संघर्ष है. अपने लेखन से ही आदिवासी समाज यह व्यक्त कर सकता है की आदिवासियत क्या है. पुस्तक विमोचन में वक्ताओं ने आलोका कुजूर की मारंग बुरु, इतिहास, संधि, बिरसा आबा और रिची बुरु कविताओं का पाठ किया. संचालक मोनिका मरांडी ने धन्यवाद ज्ञापन के साथ विमोचन और चर्चा को समाप्त किया.