पिछले अंक में मैंने करम पर्व पर एक आलेख लिखा था. लेकिन अफसोस करम पर्व के दिन अखड़ा की ओर गयी तो चारो ओर ऐसा द्श्य देखने को मिला जिससे यह महसूस हुआ कि कुछ आदिवासी समाज के लोग अपनी सदियों से चलती आ रही परम्परा को छोड़ आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल होते जा रहे हैं. अब आधुनिकता तो ठीक ही है, लेकिन जो दिखता है आधुनिकता के नाम पर, उसे हम विकृत आधुनिकता ही कहेंगे. और जो हमारे प्रकृति पूजक होने के दावे को झुठलाने लगा है.
हम जानते हैं कि झारखण्ड में आदिवासी समाज के लोगांे की पूजा परंपरा, संस्कृति, रीति-रिवाज, की पहचान ढोल, मांदर, वाचिक गीत-नृत्य व लाल पाड़ वाली साड़ी, गमछा और चादर आदि हैं. झारखंण्ड के सभी आदिवासी समुदायों द्वारा समान रुप से इनका इस्तेमाल किया जाता हैं. करम पर्व में भी सभी औरतें लाल पाड़ साड़ी पहनती हंै. लेकिन हमारे अखड़ा के आयोजन स्थल पर लाल पाड़ की साड़ी पहनी औरतों की संख्या गिनती की दिखीं. नये-नये आधुनिक परिधान पहने लड़के- लड़कियां व अलग रंगों की साड़ियां पहनी महिलाएं ही दिखी. अगर इसी तरह चलता रहा तो एक दिन हमारी पंरम्परागत लाल पाड़ साड़ी, जो आदिवासियों की पहचान है, लुप्त हो जायंगी.
ठीक उसी प्रकार करम पर्व के दिन अखड़ा का स्वरुप में भी बदलाव दिखा. दिखने में ऐसा लग रहा था जैसे मानो दुर्गा पूजा का पंडाल हो. चारो तरफ रंग-बिरंगे लाईट व तरह-तरह का गुब्बारा व अन्य कृत्रिम सजावटंे. वह प्रकृतिक सजावट जाने कहां लुप्त हो गयी जिसके सजने से चारों ओर हरयाली नजर आती थी.
करम पर्व मेें सदियों से चलते आ रहे ढोल मान्दर के साथ गीत व नृत्य, सभी लड़कियां व महिलाएं पंक्ति बना कर, एक-दुसरे के कमर में हाथ रख कर गीत भी गाती थीं और नृत्य भी करती थीं. पर अब लोगांे को बाजा के साथ नृत्य करना पंसद आता है. अब आदिवासी व करम गीत को बहुत कम लोग ही पंसद करते हंै. उन्हें अब हिन्दी और पंजाबी गाने पंसद आते हैं, उसी मंे तरह-तरह के आधुनिक वस्त्र पहन कर नृत्य करते हंै.
इन सभी बातों को देख ऐसा लगता है, जैसे अगर ऐसा ही चलता रहा तो आदिवासियों की जो पहचान है, करम पर्व का जो वैशिष्ट है, वह सभी धीरे- धीरे लुप्त हो जायेगा. और उसके जिम्मेदार खुद आदिवासी समाज के लोग ही होंगे.
इसलिए हमें जागरूकता फैलानी चाहिए कि कोई भी पर्व हो या त्योहार, सभी लोगों को लाल पाड़ साड़ी, धोती, गमछा ही पहना अनिवार्य है और अखड़ा को हमेशा प्रकृति से जोड़े रखंे. कोई भी त्योहार हो, पूजा स्थान को प्रकृति से प्राप्त सामग्रियों से ही सजाया जाये. साथ ही हमारे आदिवासी गीत, करम गीत का ही उपयोग करम पर्व पर हो. ज्यादा से ज्यादा गीत खुद गए और नित्य करें. इससे आदिवासी समाज का पहचान दिखता है.
हमें अक्सर देखने को मिलता है कि अत्याधुनिक देशों के निवासी भी पर्व-त्योहारों में अपना परंपरागत पोशाकें पहनते हैं, अपने परंपरागत नृत्य करते हैं. इसकी झलक हमें दुनिया भर के कार्निवालों में देखने को मिलता है. लोग परंपरागत कपड़े पहनते हैं. परंपरागत व्यंजन खाते हैं. अपनी परंपरा को आधुनिकता के बीच भी बचाये रखने की कोशिश करते हैं. लेकिन हम अपनी परंपरा और सांस्कृतिक वैशिष्ट को खोते जा रहे हैं.