अश्विनी पंकज किसी परिचय के मोहताज नहीं. उनकी कविता संग्रह ‘खामोशी का अर्थ पराजय नहीं होता’ ई-बुक के रूप में सामने है. इन कविताओं का रसास्वादन तो आप उस किताब से गुजर कर ही करेंगे, यहां प्रस्तुत है उस संग्रह की एक कविता, जिसे आप ‘गागर में सागर’ कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. यह कविता कविताओं के संबंध में कुछ प्रचलित मान्यताओं और धारणाओं को ध्वस्त करती प्रतीत होती है. हम तो चाहते हैं कि आप इस कविता को ही सीधे पढ़े, लेकिन कुछ बातें जो पहली बार पढ़ते ही मेरे जेहन में उठी, वह मैं आप सबों से शेयर करना चाहता हूं.

कविता के बारे में एक प्रचलित मान्यता है कि यह भावोन्मेश है. भावना की दुनिया की चीज. किसी क्षण विशेष में किसी गहरे पीड़ाबोध से आप गुजरते हैं, प्रकृति के सौंदर्य से अभिूभूत होते हैं और कविता फूट पड़ती है. ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान’ इसी भावना को अभिव्यक्त करती है. लेकिन इस कविता को पढ़ते समय इस बात का तीव्र एहसास होता है कि आज के बौद्धिक और जटिलताओं से भरी दुनियां के परत दर परत को खोलने के लिए सिर्फ भावना से काम नहीं चलेगा, जीवन-जगत, अपने परिवेश और आस पास हाने वाली घटनाओं का ज्ञान भी जरूरी है. तभी आपकी संवेदना में भी गहराई आयेगी. यानि, अनुभूति की तो जरूरत है ही, जीवन-जगत के अद्ययत ज्ञान की भी.

मसलन, आपमें यह समझ होनी होगी कि नदियों के जीवित रहने की अनिवार्य शर्त जंगल हैं. विकास के चकाचैंध में इस तथ्य से सरोकार रखना होगा कि दिनों दिन ‘गौरेये’ हमारे आंगन से गायब होते जा रहे हैं, अनेक जीव जंतु और प्रजातियां विलुप्त हो चुकी या होने के क्रम में हैं और जैसे डायनासोर अब अतीत व कल्पना लोक की वस्तु बन गये, वैसे किसी दिन हाथी भी विलुप्त हो जायें तो कोई आश्चर्य नहीं. कविता इस खरनाक संकेत के साथ खत्म होती है कि पूंजीवाद के कोख से उपजे उपभोक्तावाद के बचत व सुरक्षा के तमाम उपक्रमों के बावजूद उपभोक्तावादी संस्कृति और लालच मनुप्य मात्र को लील जायेगी.

लेकिन पहाड़ तब भी रहेंगे, इसे समझने के लिए आपको थोड़ा सा आदिवासी बनना होगा. इस सवाल से गुजरना होगा कि आदिवासी समाज के लिए पहाड़ सबसे बड़ा देवता और पूज्य क्यों है? आदिवासियों के लिए पहाड़ का वही भौतिक महत्व है, जो मछली के लिए पानी का. वह उन्हें आश्रय देता है, उसकी कोख से अनेक झरने फूटते हैं, नदियों का सृजन होता है. वह सृष्टि के आदि से है और शायद अंत तक रह जायेंगे.

आप कहेंगे कि यह समझ हर प्रबुद्ध व्यक्ति में है. हो सकता है कि समझ हो, लेकिन वह संवेदनात्मक लगाव नहीं जो आदिवासियों का पहाड़ से है. क्योंकि राजमहल की पहाड़ियों को आदिवासी नहीं काट रहे, हिमालय को थर्मल पावर प्लांटों के लिए खोखला आदिवासी नहीं कर रहे.. .पहाड़ उनके लिए सिर्फ ‘प्रहरी-संतरी’ नहीं, उनका ‘घर’ है. उसकी विशालता के सामने वह नतमस्तक है.

आईये, अब अश्विनी जी की कविता को पढ़े.

पहाड़ तब भी होंगे

अपहृत जंगल के वियोग में

जब सूख जाएंगी नदियां

अदृश्य हो जाएगा

घास का मैदान

नये पड़ाव की राह लेगा मुसाफिर

पहाड़ तब भी होंगे


थम जाएंगे जब

आसमान के आंसू

बदल जाएगा धरती का मिजाज

चिड़चिड़ा हो उठेगा मौसम

पहाड़ तब भी होंगे


कॉमिक्स के पन्नों से भी जब

फुर्र हो जाएंगे पंछी

खो जाएगा शरारती खरगोश

डायनोसोरेस की तरह याद आयेगा हाथी

पहाड़ तब भी होंगे


मार दिए जाएंगे जब अच्छे आदमी

भले लोग जयंतियों को याद आएंगे

सुरक्षा और बचत की कोशिशों के बाद भी

खर्च हो जाएंगे सारे लोग

पहाड़ तब भी होंगे.