दीपावली के दूसरे दिन जब भारत गोवर्धन पूजा करता है, ठीक उसी दिन आदिवासी समाज में सोहराय पर्व प्रारंभ हो जाता है. यह पर्व झारखंड के सभी जिलों में मनाया जाता है. हम जानते हैं कि आदिवासी प्रकृति पूजक हंै. जिस तरह सरहुल में प्रकृति की पूजा की जाती है, उसी तरह सोहराय में भी प्रकृति और पशुओं की पूजा की जाती है.
जैसे दीपावली की समाप्ति होती है, उसके दूसरा दिन सोहराय पर्व का आगमन हो जाता है और उसके साथ फसल की कटाई की भी शुरुआत हो जाती है. खेत जोतना से लेकर खलिहान में फसल की दौनी करना आदि सभी तरह के कृषि कार्य में पशु हमेशा से हमारे मददगार रहे हैं. उनके बिना हम खेती करने की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं. तो, उनके प्रति कृतज्ञता अर्पित करने के लिए हम सोहराय मनाते हैं. यह पर्व मनुष्य, प्रकृति और घरेलु पशुओं के बीच के आपसी प्रेम और श्रद्धा को दर्शाता है.
मैं बहुत बिस्तार में न जाकर यह बताउंगी जो हमने किया. सोहराय पर्व के दिन सुबह सभी महिलाएं, पुरुष एवं बच्चियां गौशाला की साफ सफाई करते हैं. गोबर से लिपटे और गौशाला आंगन दीवार सभी में चावल गुड़ी से तरह तरह का डिजाईन बनाते हैं. और फिर गाय, बैल, बकरी सभी को नदी ले जाकर नहलाते हैं. नहलाने के बाद सभी पशुओं को चावल गुड़ी से सजाना, धागा का करधनी बना गले में घंटी पहनाना आदि करते हैं. उसके पश्चात घर में सभी महिलाएं उरद, चावल, अरहर दाल का खाना तैयार करती हंै और पशुओं के लिए माला बनाते हैं. सभी सामान इकट्ठा कर एकांत शाम होते ही पूजा शुरु कर देते हैं.
आंगन में पशुओं को खड़ा कर घर की महिलाएं बांस के सूप में सभी सामाग्री रख कर पूजा की शुरुआत करती हैं. दीया सूप में रख कर उस दीया को तीन बार घुमाया जाता है और साथ ही चावल, उड़द दाल का खाना उन्हें खिलाया जाता है और उसके बाद चरवाहा लोग बकरी, बैल, गाय को मांदर नगड़ा के साथ सभी एकजुट होकर उसे दौड़ाते हैं और जिस जगह पर रोजाना चराने ले जाते हैं, वहीं पर दौड़ते- दौडते पहुंच जाते हैं और पीछे से चरवाहा लोग ढोल मांदर बजाते जाते हैं. सोहराय पर्व के दिन सभी कोई गाय बैल बकरी चरवाहा को आदर सम्मान कर उसे खुशी और उल्लास देकर यह पर्व उसी को समर्पित किया जाता है. साथ में नाचते, झूमते गांव के सभी पुरुष और महिलाएं बच्चे एकजुट होकर उसके पीछे- पीछे जाते है.ं
देख कर ऐसा लगता है जैसे सभी- बैल, बकरी, गाय, चरवाहे, गांव के औरत, मर्द बच्चे-बूढ़े एक साथ झूम रहे हो. हमारे पर्व त्योहारों में आडंबर नहीं, न बहुत ज्यादा तामझाम करने की हमारी आदत. जो हमें प्रकृति से मिलता है, उसी से हम सजते, सजाते हैं और आनंद मनाते हैं.