आदिवासी समाज का जीवन खेती और जंगल पर निर्भर है. खेती भी मुख्य रूप मानसून पर आधारित हैं. जुलाई माह के आस पास जहां रोपनी हुई थी, वहां खेतों में धान की फसल पक कर तैयार हो गये. धनकटनी शुरु हो गयी है. खेतों में सभी तरफ पके हुवे धान की झूमती बालिया मनभावन लग रही हैं. खेतों की ओर सभी महिलायें, बच्चियां व पुरुष बड़े बुजूर्ग हाथ में हंसिया पकड़ कर खेत के मेड़ पर कदम से कदम मिला कर अपने-अपने खेत में उत्साह निकल पड़े हैं. हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी मैं धनकटनी में शामिल होने गयी. और धनकटनी में मैने कुछ अच्छा भी अनुभव किया व कुछ अच्छा अनुभव नहीे किया. इन सभी अनुभव को में आप सभी के सामने कुछ शब्दों के माध्यम से रखना चाहती हूं.

खेती का यह समय उत्साह और उमंग का समय होता हैं. धान खेतों में पक गये. और कुछ खेतों के कट भी गयेे. हमारे खेतों में दिहाड़ी पर खटने वाले मजदूरों की जरूरत नहीं. गांव में सभी एक-दूसरे की मदद कर धान की कटाई करते है. सभी महिलाए, बच्चियां व लड़कियां हंसिया पकड़ कर खेत कि ओर निकल पड़ती हैं और धान की कटाई करना शुरु करते है. काटने के बाद उन्हें सूखने के लिए दो चार दिन खेतों में ही छोड़ दिया जाता. फिर उन्हें गट्ठर बना कर यहां वहां बनाये गये खलिहानों में पहुंचाया जाता हैं. और उनकी दौनी होती है.

खलिहान में धान पहुंचाने के पहले खलिहान की ठीक से सफाई की जाती है. उसे गोबर-मिट्टी के घोल से लीपा जाता है और पूजा किया जाता हैं. मान्यता है कि इस पूजा से किसानों का अन्न भंडार भरा रहता है. आदिवासी समाज के लोग पूजा करने के बाद ही धान झाडने का काम शुरु करते हैं. फिर धान के गट्ठर बना कर एक तरफ रखे जाते और उनकी दौनी शुरु होती है. दौनी के लिए बैल और काड़ा दोनों का प्रयोग होता हैं. बैल और काड़ा से दौनी होने के बाद घर के सभी सदस्या पुआल को अनाज से अलग करते हैं. महिलाएं बाॅस के सूप से छोटे-छोटे पुआल का टुकड़ा को सूप से हवा करती हैं. उससे अनाज पूरी तरह साफ हो जाता है. इस तरह धान की कटाई से लेकर उसे खलिहान में ला कर बैल व काड़ा अर्थात घर के सभी सदस्य मिल कर धान से अनाज निकालने में अह्म भूमिका निभाते हैं.

वही मैने कुछ दुश्य यह देखा की अब कुछ लोग मेहनत करना पंसद नहीं करते. वे सभी कृषि कार्य को जल्दी से निपटाना चाहते हैं, जिसके कारण वे सदियों से चलती आ रही धनकटनी का औजार और बैल, काड़ा व खलिहान सभी लुप्त होते जा रहे. नई तकनीक आने के बाद कुछ बैल, काड़ा को लोग बेच दे रहे हैं. जो सदियों से खेती करने में साथ दे रहे थे, उसे पालना लोगो को बोझ लग रहा है. सामान्य रुप से देखा जाए तो आदिवासी समाज के नए पीढ़ी के लोग अपनी ही सदियों से चलती आ रही परम्परा को लुप्त करते जा रहे हैं. अब लोगों को नए-नए तकनीक का उपयोग करना पंसद हैं, क्योकि उससे जल्दी कृषि कार्य हो जाता है.

परन्तु उस तकनीक में खर्च बहुत हैं. पुआल से धान अलग करने की मशीन का किराया प्रति घंटा 1400 रुपये है. जुताई के लिए ट्रैक्टर का किराये पर ही सही इस्तेमाल, परंपरागत बीज की जगह बाजार के बीज का प्रयोग आदि से खेती का लागत मूल्य बढ़ गया है. तकनीक के कारण कार्य जल्दी तो हो रहा है, पर इससे हर किसान अनाज का शुद्ध मूल्य प्राप्त नही कर पा रहा हैं और घाटे में रहने लगा है. हम आदिवासियों के पास खेत ज्यादा भी नहीं होता, इसलिए महंगी खेती से लोग बेजार भी हाने लगे हैं. मवेशियों के नहीं रहने से खाद की भी किल्लत होने लगी है. पता नहीं इसका अंत में क्या परिणाम निकले.