खेतों में धान कट चुके हैं. इस बार फसल भरसक अच्छी हुई है. कहीं कहीं धान खेतों में ही पड़े हैं. उन्हें तत्काल वहीं सैंत कर रखा गया है जिन्हें सर पर उठा कर या बैल गाड़ी पर लाद कर खेतों से गांव के खलिहानों तक पहुंचाया जा रहा है. गांव में धान को उबाल सुखाया जा रहा है. एक विश्रांति सी चारो और दिखायी दे रही है. कठोर श्रम के कुछ महीनों के बाद अब यह थोड़े आराम का समय है. वैसे, काम कभी खत्म नहीं होता. अब महिलाएं घरों की दीवारों पर मिट्टी चढ़ा रही हैं. लीपना पोता, घर-द्वार रंगना, पोतना सवांरना हो रहा है. मकर संक्रांति की तैयारी हो रही है. अगले कुछ महीनें झारखंड में मेलो -त्योहारों की रौनक रहेगी. और मनुष्य व धरती दोनों विश्राम करेंगे.

कितना कुछ दिया है धरती ने, अब उसे भी वि़श्राम चाहिए. कुछ लोगों को यह बात अजीब लगेगी, लेकिन विश्राम तो सभी को चाहिए. चाहे वह मानव जाति हो या जीव-जन्तु या पशु-पक्षी. साथ ही धरती को भी विश्राम की जरुरत है. क्योकि सबसे ज्यादा बोझ तो धरती ही उठाती है. हमारे घरों के खलिहान उसी की बदौलत तो भरे हैं. हमारा पेट तो उसी की बदौलत भरता है. बहुत सारे लोग इस बात को नहीं समझते. धरती का अंधाधुन उपयोग करते हैं. एक फसल काटते ही उसे फिर से जातने बोने में लग जाते हैं. जिससे धरती को भारी नुकसान पहुंचाते हैं. पंजाब व हरियाण सहित कई अन्य राज्यों में धान की खेती जैसे ही खत्म होती है, खेत को तैयार कर गेहंू या किसी अन्य फसल को बो देते है. वे यह नहीं समझ पाते कि जिस तरह एक बच्चा जनने के बाद औरत की कोख को थोड़ा विश्राम चाहिए, उसी तरह इस धरती को भी. वे धरती को मां तो कहते हैं, लेकिन अपनी मां का दर्द समझने के लिए तैयार नहीं.

आदिवासी समाज के पास वह दृष्टि है. वे धरती का उतना ही दोहन करते है. जितना बेहद जरुरी है. धान की कटाई होने के बाद उसे अब कुछ महीने धरती को विश्राम देगें, ताकि दूसरी फसल के लिए फिर से उर्वरा शक्ति प्राप्त कर सकें. जमीन को कुछ महीनों के लिए परती छोड़ देते है. इसलिए आदिवासी समाज को कभी रासायनिक खाद आदि की जरुरत नहीं पड़ती. वे धरती को विश्राम के लिए छोड़ अन्य तरह के कामों में जुट जाते हैं. जैसे-पशु पालन, बकरी, मुर्गी, बतख, या बागवानी करते है. फिर फल, फूल, मशारुम, रेशम आदि की खेती कर जीने के संसाधन जुटाते हैं. इसी तरह वे धरती को समय-समय पर महीना व वर्ष विश्राम के लिए धरती को छोड़ देते है. और अन्य कार्य में जुट जाते है. क्योकि वे जानते हैं. धरती मशीन नहीं और मनुष्य के लोभ का कोई अंत नहीं.

कुछ लोग कहेंगे कि इसी लिए तो आदिवासी गरीब है. आपकी बात सही हो सकती है, लेकिन हमारी वजह से पर्यावरण को नुकसान तो नहीं पहुंच रहा? धरती गरम तो नहीं हो रही? हमारे गांव घर के पास का वायुमंडल तो जहरीला नहीं बन गया है जैसा उत्तर भारत का? हमारे सर पर नीला आकाश तो है? अन्य विकसित खेती वाले राज्यों की तरह हमारे यहां लोग आत्महत्या तो नहीं कर रहे?