समाचारपत्रों में रिक्त स्थान भरने के लिए सम्पादक प्रायः कुछ न कुछ तैयार ही रखते हैं। सौ साल पहले के समाचार-पत्र और सम्पादक यही करते था। इसे अंग्रेजी में ‘एवर ग्रीन’ अर्थात् ‘सदा बहार’ कहते थे। आज भी ऐसे समाचार ‘एवर ग्रीन’ कहलाते हैं। सो प्रस्तुत है सौ साल पहले के एक एवरग्रीन स्टोरी की बानगी। यह स्टोरी ‘क्रॉनिकल’ सन् 1920 के जून महीने में छपी। उसमें निम्नलिखित तथ्य दिये गये थे-
“दशमलव पद्धति का आविष्कार भारतीयों ने किया था, भूमिति और बीज-गणित की भी पहले पहल भारत में खोज हुई थी और त्रिकोणमिति की भी।
“संसार में सर्वप्रथम पांच अस्पताल भारत में खोले गये थे। यूरोप के प्राचीन चिकित्सकों ने भारत की औषधियों का उपयोग किया था। ईसवी पूर्व छठी शताब्दी में भारतीयों ने मानव शरीर-शास्त्र का अध्ययान किया अैर उसी समय शल्य-चिकित्सा की विद्या भी हस्तगत की।
“आज लोहे के जैसे स्तम्भ बनाये जा सकते हैं, वैसे स्तम्भ बनाने की कला भारत प्राचीन काल में जानता था। गुफाएं खोदने का कौशल तो हिंदुस्तान के ही पास था।’’
“जब सिकंदर भारत आया, तब उसे पंजाब और सिंध में ‘प्रजातंत्र’ राज्य मिले।
“प्राचीन हिंदुस्तान में हमारी स्त्रियों को वे सब अधिकार प्राप्त थे, जिन अधिकारों के लिए आज यूरोप की स्त्रियां लड़ रही हैं।’’
“चंद्रगुप्त के राज्यकाल में नगरपालिकाएं थीं।’’
“व्याकरण-विद्या को तो हिंदुस्तान ने ही संपूर्णता तक पहुंचाया था। आज तक ‘रामायण’, ‘महाभारत’ की होड़ कर सकने वाले ग्रंथों की रचना नहीं हो सकी है…।”
सौ साल पहले प्रकाशित ये सारे तथ्य किस हद तक सही हैं, यह हिंदुस्तान के आम पढ़े-लिखे लोग तो क्या राष्ट्रीय स्तर पर जाने-माने राजनेता भी नहीं जानते थे। उनमें गांधी जैसे ‘सेकेंड लाइनर’ और भारत की राजनीति के फ्रंट लाइनर, या कहें फर्स्ट लाइनर तिलक, गोखले, लाजपत राय, विपिनचंद्र पाल आदि-आदि भी शामिल थे। वे अपने ‘वर्तमान’ ‘पॉलिटिकल तो क्या सांस्कृतिक ‘डिस्कोर्स’ के लिए भी अतीत के इन अपुष्ट ‘तथ्यों’ को ‘प्रमाण’ मानने के बजाय ‘प्रश्नों का पिटारा’ बना देते थे।
जैसे, गांधी ने कहा- “ये सारे तथ्य किस हद तक सही हैं, नहीं जानता, लेकिन इतना अवश्य जानता हूं कि यदि विद्वान् और समाज-सुधारक स्वर्गीय न्यायमूर्ति रानडे {महादेव गोविंद रानडे (1842-1901), जिन्होंने गोखले को उनके आरम्भिक जीवन में प्रशिक्षित किया था, आज जीवित होते और भारत की प्राचीन-गाथा की इन सारी बातों को सुनते अथवा पढ़ते, तो अवश्य ही कहते कि ‘इससे क्या होता है?’
वे कहते कि ‘कोई राष्ट्र अपने स्वर्णिम अतीत को याद करके आगे नहीं बढ़ सकता। यदि उसे याद किया ही जाए, तो सिर्फ आगे बढ़ने की बात को ध्यान में रखकर ही किया जाना चाहिए। आज ‘रामायण’ को लिखने वाले व्यक्ति कहां हैं? प्राचीन काल की नीति आज कहां है? उस समय की कार्यदक्षता और कर्तव्य-परायणता कहां हैं? जिन औषधियों की सहस्रों वर्ष पूर्व खोज की गई थी, क्या उनमें हम कोई वृद्धि कर सके हैं? प्राचीन ग्रंथों में जिन औषधियों का वर्णन है, उनकी हमें पूरी जानकारी भी नहीं है। उसी तरह ऊपर उल्लिखित अन्य सब विभूतियों के संबंध में अपना दारिद्र स्पष्ट ही दिखाई दे रहा है।’
“मुझे तो लगता है कि जब तक हम अपने गौरवमय अतीत का वर्तमान काल में पुनरुद्धार नहीं कर सकते, तब तक पुरानी पूंजी के संबंध में चुप रहना ही बुद्धिमानी है। जिस पूंजी का हम कुछ लाभ नहीं उठा सकते, जिसको हम संसार के आगे नहीं रख सकते कि वह उसे परख कर देख ले, तब तक वह हमें गौरवान्वित नहीं, लज्जित करती है और केवल बोझस्वरूप है।’’
कुछ और बातें अगले अंक में…