गैर अदिवासी समाज में सदियों से यह अवधारणा बनी हुई है कि वंश बेटों से चलता है. इसलिए सामान्यतः बेटे के जन्म लेने पर खुशी और बेटियों के जन्म लेने पर एक तरह की उदासी परिवार में छा जाती है. समझ यह कि लड़की तो पराया धन होती है. उसे लाख पढ़ाओ, लिखाओ, लेकिन विवाह के समय उसके लिए दहेज जुटाना पड़ेगा और फिर वह एक दूसरे घर की हो कर रह जायेगी. कुछ प्रदेशों में तो गर्भावस्था में ही कन्या भ्रूण की हत्या तक कर दी जाती है.

लेकिन क्या आदिवासी समाज भी इस अवधारणा का शिकार होता जा रहा है? आदिवासी समाज में तो लड़किया बोझ नहीं होती? वे लड़कों से अधिक काम करती हैं. उनके विवाह में भी सामान्यतः दहेज नहीं देना पड़ता. बावजूद इसके अब आदिवासी घरों में भी लड़का पैदा होना जरूरी माना जाने लगा है. पहले यह बात विश्वसनीय नहीं लगती थी, लेकिन अब यह अक्सर दिखाई देने लगा है कि बेटे की इस चाह में परिवार में संतानों की संख्या बढ़ जाती है. एक बेटी हुई, फिर दूसरी बेटी, फिर तीसरी, लेकिन बेटे की चाह में परिवार नियोजित नहीं किया जाता और संतानों की संख्या बढती़ जाती है. सामान्य आय वाले परिवार की पूरी अर्थ व्यवस्था ही इस वजह से बिगड़ जाती है. और आर्थिक स्थिति बिगड़ने पर लड़के को तो भरसक अच्छा खाने-पिलाने का जुगाड़ किया जाता है, लेकिन लड़कियों की घोर उपेक्षा होने लगती है. इस तरह के वाकये अक्सर हम अपने आस पड़ोस में देखते हैं.

हमारे बस्ती में एक नन्ही बच्ची कुपोषण की शिकार होती जा रही है. और कुपोषण का कारण यह कि उसके माता पिता पहली संतान के रूप में बेटा चाहते थे, लेकिन पैदा हो गयी बेटी. फिर भी सब खुश ही हुए. लेकिन दूसरी बार भी बेटी हो गयी तो मायूसी छा गयी घर में. उसकी देखभाल लगभग 3 साल तक ठीक ठाक ही हुई, लेकिन तीसरे बच्चे के रूप में बेटे के पैदा होने के बाद दोनों बच्चियों की घोर उपेक्षा होने लगी. बच्चियों की तरफ घर के लोगों ने ध्यान देना ही छोड़ दिया. उसके माता व पिता का सारा ध्यान लड़के पर केंद्रित हो गया है. 3 साल की बच्ची खाना खा रही है या नहीं, समय से पानी पी रही ह या नहीं, कहां खेल रही, कहां है, माता-पिता को कोइ चिन्ता नहीं. बड़ी वाली लगभग 5 साल की है. वो खाना पानी सब खुद से कर लेती है. लेकिन छोटी दिनांे-दिन कुपोषण की शिकार होती जा रही है.

आदिवासी सामाज में बेटी को कभी मारते या फंेकते नहीं, लेकिन यह धारणा अब उनमें भी हिंदू समाज के देखा देखी बनती जा रही है कि वंश बेटों से बढ़ता है, बेटियों से नहीं. हालांकि बेटियां ही परिवार के काम आती है. घर को संवारना, सजाना, बाहर-भीतर काम करना, वृद्ध माता पिता को देखने आदि का काम आदिवासी समाज में लड़कियां ही करती हैं. लेकिन यह नई प्रवृत्ति आदिवासी समाज के लिए बेहद घातक होती जा रही है. एक तो इससे परिवार में बच्चों की संख्या ज्यादा हो जाती है और फिर उन बच्चों में लड़कियों की घोर उपेक्षा. यह धारणा गलत है कि वंश बेटों से चलता है. वास्तव में वंश तो बेटियों से चलता है और वह भी एक नही बल्कि दो-दो परिवार का. इसलिए बेटियों की स्वतंत्रता व उन्हें शिक्षित करना बहुत जरुरी है.