देश में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ संविधान सम्मत है। विरोध में सड़क पर उतरना और किसी संगठन का फतवा जारी करना भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ही कुछ प्रकार हैं। लेकिन क्या जान मारने की धमकी देने तक की हद तक जाकर अन्य की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विरोध करना भी संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आता है? सवाल का आशय सिर्फ यह नहीं कि संविधान को शिरोधार्य करनेवाली देश-प्रदेश की हमारी ‘राज्य-सत्ता’ और ‘सरकारें’ इस सवाल के प्रति कितनी चिंतित हैं, कितनी चिंतनशील हैं? दीगर आशय यह है कि ‘हम भारत के लोग’, जिन्होंने संविधान को आत्मार्पित किया, इस सवाल के प्रति सचेत हैं?
एक पुरानी घटना का जिक्र यहां प्रासांगिक होगा. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल (जयपुर साहित्य उत्सव, 20-24 जनवरी, 2012) 20 जनवरी को शुरू हुआ। 24 जनवरी तक चला। लेकिन उसमें सलमान रुश्दी नहीं आये। ‘द मिडनाइट्स चिल्ड्रन’ और ‘द सैटानिक वर्सेज’के लेखक सलमान रुश्दी भारतीय मूल के लेखक हैं। इन किताबों की वजह से विश्व भर के पढ़े-लिखे वर्गों में चर्चित हैं और विवादास्पद भी। वह अंग्रेजी लेखन में पूरे विश्व में खास जगह बना चुके हैं। तमाम विवादों के बावजूद वह वर्ष 2007 के जयपुर साहित्य उत्सव में शामिल हुए थे, लेकिन 2012 की उनकी यात्रा का कुछ हिन्दू एवं मुस्लिम संगठनों, कांग्रेस एवं भाजपा, जो देश के विभिन्न प्रदेशों में कहीं सत्तापक्ष और कहीं विपक्ष में हैं, और उनकी सत्ता-राजनीति में शामिल सहयोगियों ने विरोध किया। देवबंद के दारुल उलूम ने ‘फतवा’ ही जारी कर दिया! उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के चुनाव के मद्देनजर वह विरोध मुखर हुआ, और समर्थन का स्वर उसी अनुपात में मौन रहा। ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के नाम पर मुखर विरोध और मौन समर्थन दोनों सुनियोजित ढंग से चले।
राजस्थान एवं अन्य प्रदेशों सहित देश के सत्ता-संपन्न प्रभुओं में रुश्दी के आगमन से ‘लॉ एंड आर्डर’का ‘प्राब्लम’पैदा होने की चिंता हुई। यूं देश में कई लोकतांत्रिक और शांतिमय व निहत्थे विरोध-प्रदर्शनों को कुचलने का प्रयास कर हमारी सरकारें यह साबित कर चुकी हैं कि उनके पास सड़क पर उतरे या उतर सकने वाले विरोध को मर्यादित या नियंत्रित रखने की अकूत शक्ति है। लेकिन ऐन चुनाव के वक्त वे इस शक्ति का कैसे इस्तेमाल करें? सो सत्तारूढ़ दल के प्रभुओं ने विरोध के ऐसे माहौल को खूब हवा दी, जो चुनाव में उनके विरोधी दलों को भी अपनी सफलता लगे और जिससे सलमान रुश्दी भारत आने के बारे में पुनर्विचार करें। और, यह बात दब जाए कि सरकारी पार्टी चुनाव के मद्देनजर डर कर विरोधियों के दबाव में आ गयी। हर सरकारी पार्टी जानती है कि यह विरोध सियासी रोटियां सेंकने के लिए माचिस की तिली रगड़ने जैसा है, लेकिन वह यह नहीं कह सकती, क्योंकि उसे भी अपनी राजनीति की रोटियों को सेंकने के लिए इसी तरह की आग की जरूरत है। वैसे, यह सवाल उन प्रभुओं के लिए भी खास चिंतनीय नहीं था, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक होने के बावजूद सलमान रुश्दी के आगमन के समर्थन के मामले में मौन थे। बहरहाल, उत्सव शुरू होने के चंद घंटे पहले सलमान रुश्दी ने ई-मेल से सूचना दी कि वह राजस्थान नहीं आएंगे, क्योंकि उनके जान का खतरा है। किसी का लेखन कब और क्यों चर्चित होता है? कब किसी लेखक का कोई उपन्यास, कहानी-संग्रह या कविता की किताब खूब बिकती है? क्यों उसे बेस्ट सेलर कहा जाता है? पाठक के नाते हम-आप किसी किताब में क्या खोजते हैं और पा लेते हैं कि उसे एक ही सांस या एक ही बैठक में पढ़ जाते हैं?
अक्सर ऐसा भी होता है कि किसी किताब को पढ़ते-पढ़ते हम कभी कटेंट को लेकर चिढ़ने-कुढ़ने लगते हैं, लेखक के भले-बुरे की कल्पना करने लगते हैं, फिर भी पढ़ना नहीं छोड़ते। पढ़ना छोड़ भी देते हैं, तो वह किताब हमारा पीछा नहीं छोड़ती और हम उससे दूर भागने की कोशिश में उसके पीछे खुद पड़ जाते हैं। हम पाते हैं कि हम खुद उसकी ओर खिंचते जा रहे हैं। ऐसा क्यों होता है?
इसके बारे में भारत के कई विद्वान लेखकों ने बहुत कुछ लिखा है- निर्मल वर्मा, अज्ञेय, रेणु, यू.आर. अनंतमूर्ति आदि-आदि ने। उन सबके लेखन में एक उत्तर ‘कॉमन’। वह यह कि अक्सर सामान्य से सामान्य पाठक भी किसी किताब या रचना को पढ़ते हुए यह देखना चाहता है कि लेखक क्या कहना चाहता है? किताब या रचना को पढ़ते हुए पाठक को ज्यों ही यह महसूस होता है कि लेखक के लेखन में एक ‘बेचैनी’ है, कि लेखक ने किसी आदर्श स्थिति की प्रतीक्षा किये बिना लिखा, त्यों ही पाठक उस बेचैनी को इस रूप में महसूस करने लगता है कि अगर लेखक सिर्फ प्रतीक्षा करता, तो ऐसा लिख नहीं पाता। पाठक अपने अनुभव से पहले से इतना जानता होता है कि ‘आदर्श’ परिस्थितियां न व्यक्तिगत जीवन में संभव हैं और न कोई समाज या व्यवस्था इन्हें जुटा सकती है। सो पाठक लेखक की इस बेचैनी को टटोलने के क्रम में खुद बेचैन होकर लेखक को अपना दोस्त बना लेता है या फिर दुश्मन बना लेता है। हालांकि दोनों ही स्थितियों में किताब से उसका संबंध बना रहता है। खासकर, तब तो कोई पाठक, चाहकर या न चाहते हुए भी, किसी किताब को अपना दोस्त बनाकर या दुश्मन बनाकर उससे कुछ गहरा या लम्बी उम्र का संबंध बनाये रखता है, जब वह पाता है कि लेखक ने मुख्यतः यह कहने की कोशिश की है कि तमाम विपरीत एवं गर्हित परिस्थितियों के बीच भी आदर्श की उम्मीद और सपने को जिंदा रखना ही उसके रचनाकर्म का मूल आधार है।