आदिवासी समाज में लड़के, लड़कियों में सुना है भेद नहीं होता था. लेकिन अब दोनों के लालन-पालन में जिस तरह से अंतर किया जाता है, उसे देख कर यह पुराने जमाने की बात लगती है. अब आदिवासी घरों में भी यदि कोई लड़की जन्म लेती है, तो उसका जीवन संघर्षों से घिरा रहता है. खुशी की बात यह है कि कठोर संघर्ष के बीच भी लड़कियां लिख पढ़ रही हैं, जबकि वंश का चिराग होने के नाते बेफिक्री से जीने वाले लड़के नहीं पढ़ पा रहे हैं. दिनों दिन लड़कों की संख्या शिक्षा के क्षेत्र में कम होती जा रही है और वे नशाखोरी के शिकार होते जा रहे हैं.

आदिवासी समाज में भी अब यह भावना घर बनाती जा रही है कि लड़कों से वंश बढ़ता है. इस कारण से घर में उन्हें लाड़- प्यार ज्यादा मिलता है. चाहे वह पढ़ाई करे ना करें, गलत रास्ते पर चलें, नशा करंे, उन्हें डांटा-फटकारा नहीं जाता है. उन पर बाहर जा कर काम करने का दबाव नहीं. महानगरों में जा कर लड़कियों की तरह काम करने का दबाव तो उन पर नही ही रहता है. इसके बावजूद भी वे लिख पढ़ नहीं पा रहे और फ्रस्टेशन में गंजेड़ी बन रहे हैं. दिन रात घर से गायब रहते हैं. एकांत शाम खाना खाते और रात गुजारते, सुबह फिर निकल पड़ते लड़के. घर से बाहर रहते. माता-पिता कुछ पूछताछ तक नहीं करते. लेकिन अगर लड़की थोड़ी देर भी घर में ना रहे, तो उससे पूछताछ करने लगते हैं. और दूसरी तरफ लड़कियों से यही उम्मीद करते हैं कि वह घर में भी काम करें और बाहर जाकर भी काम करें.

मैं कुछ दिनों से देख रही हूं कि किस तरह लड़कों की ख्वाहिश को पूरा करने के लिए माता-पिता जमीन तक बिक्री कर देते हैं. इससे उनके लाड़ले की ख्वाहिश तो पूरी हो जाती है, लेकिन वे पढ़ना तो क्या, बाहर जाकर काम करना भी नहीं चाहते. दुख की बात तो यह है कि यही सोच उनके आगे की जिंदगी बर्बाद कर देती हंै. उन्हें पता तब चलता है जब उसके माता-पिता बुजुर्ग हो जाते हैं. जब वे अपने लाड प्यार से पाले गये लड़कों से मदद और सहारे की उम्मीद करते हैं तो पाते हैं कि वह तो किसी काम का नहीं रहा. उनमें से अधिकतर नशे के शिकार हो चुके होते हैं. उल्टे अपनी आदतों से मजबूर वे अपने माता-पिता पर ही जुल्म करना शुरू कर देते हैं.

ऐसे समय में लड़कियां ही अपने माता पिता के काम आती हैं. खट कर खुद भी खाती हैं और उन्हें भी खिलाती हैं. जिस बेटी की इच्छा को माता पिता ने नजरअंदाज कर दिया था, वह बेटी बस यही सोचती है कि मेरे माता-पिता को कभी कष्ट ना हो. इसकी वजह से वह बहुत बार अपना विवाह भी नहीं रचाती, न अपना घर बसाती हैं. बाप बेटियों को तकलीफ में देख सकते हैं, पर बेटों को नहीं और बेटियां खुद को तकलीफ में देख सकती है पर अपने माता पिता को कभी नहीं.

सोचने की बात यह है की जिस तरह मां-बाप लड़कों का साथ देते है और बचपन से लेकर बड़े तक उनकी हर ख्वाहिश को पूरा करते हैं, चाहे वह पढ़े ना पढ़े, काम करें या ना करें, उस पर कोई दबाव नहीं, ना ही उन्हें कोई कोई परेशानी. फिर जुल्म लड़कियों पर ही क्यों किया जाता है? बचपन से लेकर उसे हर जगह संघर्ष में ही क्यों घेर देते हैं? शायद इसलिए क्योंकि बेटी तो नसीब में होती है.और बेटे तो दुआओं के बाद मिलते हैं!