सरस्वती पूजा समाप्त हो गयी, लेकिन उसके साथ मेरे मन में कई सवाल उत्पन्न हुए है.ं मैंने कुछ आदिवासी बस्तियों में आदिवासी समाज के लोगों को बड़े शौक से सरस्वती पूजा मनाते देखा. आदिवासी प्राकृतिक पूजक है और उनके यहां किसी भी रूप में मूर्ति पूजा का विधान नहीं फिर क्यों उन्हें भाने लगा है सरस्वती पूजा?
सच बात तो यही है कि सरस्वती पूजा हिंदुओं का त्यौहार है. इससे आदिवासियों का कोई लेन-देन नहीं. फिर क्यों हमारे आदिवासी समाज के लोग इस पूजा में शामिल होते हैं और बस्ती गांव में पंडाल बनाकर सरस्वती पूजा करते हैं? भजन करते हैं? हवन करते हैं? ऐसा लगता है कहीं ना कहीं आदिवासी युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति को लेकर हीन ग्रंथि का शिकार हो रहा है.
मैंने कुछ लड़कियों, बच्चियो व बड़े बुजुर्गों से पूछा कि आदिवासी समाज में इस तरह पंडाल बनाकर सरस्वती पूजा क्यों मनाते हैं? उन्होंने कहा कि विद्या प्राप्त करने के लिए. उनका मानना है कि जो बच्चियां- लड़कियां पढ़ाई लिखाई करती हंैं, उसे सरस्वती पूजा करना चाहिए. तो फिर ईसाई बच्चे, मुस्लिम बच्चे और पारसी बच्चे सरस्वती पूजा क्यों नहीं करते? वे भी तो पढ़ाई लिखाई करते हैं. सच बात तो यह है पूजा से विद्या का कोई वास्ता नहीं और डीजे पर नाचना-गाना को हटा दिया जाये तो आज कल के सरस्वती पूजा में बचता क्या है? यह भी साफ साफ दिखता है कि इसमें ज्यादातर वैसे बच्चे शामिल होते हैं जिन्हें पढ़ने लिखने में रुचि नहीं.
दरअसल, कृषि व्यवस्था पर आधारित संस्कृति कमजोर पड़ रही है. अपनी बस्ती में एक मांदर नहीं महुआ का एक पेड़ नहीं. खेती बाड़ी नहीं रहने के बाद बेहद कठोर नीरस जीवन. अपनी संस्कृति से कट कर लोग उस संस्कृति की तरफ आकर्षित हो रहे हैं जो अपने चारो तरफ देखते हैं. और लोग सरस्वती पूजा मनाने लगे. आदिवासी बच्चे भी दूसराके के देखा देखी रोड में चंदा मांगने लगे हैं.
एक सवाल यह भी है कि हिंदू समाज के लोग तो आदिवासी समाज के पर्व त्योहारों में शामिल नहीं होते हैं. ना वे कर्मा करते हैं ना वे सरहुल व अन्य आदिवासी पर्व मनाते हैं. तो क्या माना जाए कि आदिवासी का कोई धर्म नहीं, अपनी संस्कृति नहीं, जो वे लोग हिंदुओं के त्यौहार मनाने लगे हैं. या उन्हें अपने त्योहारों से ज्यादा अच्छा हिंदू पर्व-त्योहार लगने लगा है. यह सब सोच कर मन परेशान हो जाता है. क्या सही है, क्या गलत, यह समझ में नहीं आता.
लेकिन यह तो साफ है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो आदिवासी संस्कृति पर हिंदू संस्कृति का प्रभाव बढ़ता चला जाएगा. आदिवासी समुदाय का एक हिस्सा ईसाई बनने की ओर चला है और दूसरा हिस्सा सरस्वती पूजा आदि पर्व करके हिंदू बनने को अग्रसर है. उनके पूजा पाठ में शामिल होकर वह अपनी प्रकृति पूजा का अपमान कर रहा हैं.
हमे अपनी नई पीढ़ी को जागरूक करना चाहिए कि सरस्वती पूजा हमारा पर्व नहीं. उससे विद्या प्राप्त नहीं होगी. यदि सरस्वती पूजा से विद्या प्राप्त होती तो आज मुस्लिम, ईसाई बच्चे भी सरस्वती पूजा करते. विद्या पूजा से नहीं, लगन और मेहनत से लिखाई, पढ़ाई करने से प्राप्त होगी.