झारखंड की सबसे बड़ी आबादी वाला आदिवासी समुदाय हैं संथाल. संथाल संस्कृति वैज्ञानिक सोच के साथ संविधान को अपना आधार मानते है. वैज्ञानिक सोच और तकनीकी व्यवस्था ने संथाल आदिवासी महिलाओं के नजरिए को बदला है. कुछ बाहर निकल कर हर चुनौतियों का समाना करने और शिक्षा लेकर अपनी बात रखने तथा लैंगिक समानता के लिए आगे बढ़ रही हंै. वहीं गांव की महिलाएं अब भी.परम्परागत व्यवस्था के अधीन है. वे घर, खेत और समाज की सेवा के लिए जो नियम गढ़े गये हैं, उसी के अनुरूप चलती हैं. शहर और गांव में संविधान को जानने वाली महिलाएं परम्परागत हक की बात को अपने ही नजरिया से देखती समझती हैं. चलिए, आज जाने कि बदलते दौर में संथाल आदिवासी महिलाएं अपने समाज को कैसे देख रही हैं, संविधान, वैज्ञानिक चेतना की समझ रखने वाली औरतें.

असिस्टेंट प्रोफेसर रजनी मुर्मू संथाल आदिवासी समाज से आती हंै. लैगिंक समानत पर चर्चा करते हुए बताया कि संथाल आदिवासियों के जीवन में सम्मान, अधिकार नहीं हैं. गांव की बात करे तो पंच में महिलाओं का प्रतिनिधि नहीं होता है. ऐसे में महिलाओं की पीड़ा, महिलाओं की समस्याओं के समाधान के रास्ते बंद है. जहाँ मनुष्य होता है, वहाँ व्यवस्था में समस्या भी होती हैं. उनके समाधान के रास्ते पंच के माध्यम से यानि सामूहिकता के साथ आसान रास्ते खोजने का तरीका है. लेकिन इस पंच वाली व्यवस्था में संथाल महिलाओं का प्रतिनिधित्व ही नहीं नहीं होता रहा है, तब समाधान कैसे होगा? हम रूढिवादी व्यवस्था वाली सोच के साथ जीवन जी रहें हैं. संविधान और वैज्ञानिक चेतना से लैस भी हो रहें हैं, लेकिन औरतों के लिए अपनी परम्परागत व्यवस्था पर हम बदलाव सोच नहीं सकते. आज भी घरों में बेटा- बेटी के बीच फर्क है. बेटियां घर के काम के साथ शिक्षा भी ले रहीं हैं. बेटे घर के काम से मुक्त है. हमारे यहाँ ऐसी व्यवस्था बनी हुई है, जो औरतों को कमजोर करती है. जैसे, पति के बड़े भाई और बहन के पति के सामने समान्तर में बैठ नहीं सकते. वो कुर्सी या खाट पर बैठता है, तो आपको जमीन पर बैठना होगा. समाज में बेटा ना होना, दूसरे विवाह का कारण भी बनता है. यदि उससे भी बेटा नहीं हुआ, तो जाहेरथान यानि धार्मिक स्थल में घुसने नहीं दिया जाता हैं. ऐसी रूढिवादी व्यवस्था हैं आज भी चल रही है.इससे औरतों के मन को छोटा करकेे गांव घर में उसे दरकिनार करते हैं. हम जैसी औरतें संविधान प्रदत्त अधिकार के तहत शिक्षा को हथियार बना कर गैरबराबरी के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं. जब लिखित संविधान की ओर बढ़ते हैं, तब समाज के उन असमानता वाली व्यवस्था की कमियांे को बताना पड़ता है.

संथाल समाज में परिवार के वंशजों में महिलाओं का नाम बहुत कम लोग जानते है. क्यों? जबकि मर्द का नाम खतियान में दर्ज होता हैं. औरत का नहीं है? पैतृक सम्पत्ति पर हक तो दूर, नाम तक दर्ज होने नहीं दिया गया. ऐसे में हमारे औरतों के वंशजो को नहीं जान पाते हैं.

कुछ परिवार में अब सरकार के मांग के आधार पर बेटियां का नाम दर्ज हो रहा हैं. लेकिन वो हक के लिए नही.ं हक मांगने में हत्या तक की घटना हो जाती है. हत्या करने वाले अपना ही समाज के लोग होते हैं. समाज के बनाए गये नियम में महिलाओं की भागीदारी गौण है. इस लिए हर चीजो में असमानता दिखती है.

होलिका मरांडी स्कूल शिक्षिका हैं. कहती हैं, वर्तमान समय में संथाल आदिवासी समाज दो धारा से गुजर रहा है. एक लिखित दूसरा अलिखित. संथाली समाज की परम्परागत समाजिक ढांचा अलिखित ही है जिसमें अधिकार की बातें मान्यताओं के इर्द गिर्द ही चलती है. दूसरी धारा तकनीकी युग और संविधान को लेकर चलती है. इसमें सोच और बदलाव के रास्ते खुलते हैं. जैसे- जैसे शिक्षा ओर आधुनिकता आयी, संथाल समाज खुद में बदलाव लाते गया. लेकिन औरतों से संबंधित परंपरागत कानून नहीं बदले, वे अपनी रूढ़ी परंपरा से ही चलते हैं, और वहां औरत गौण हैं. संथाल औरतों के मातृवंश का कोई इतिहास परम्परागत व्यवस्था में दर्ज नहीं हैं.

दादी मां की अहमियत और दारोमदार सिर्फ घर तक ही रहा. जीवन खपा देने वाली औरतों का नाम कहीं नहीं हैं.

प्रमिला सोरेन सामाजिक जीवन में लगातार भागीदारी निभाती हैं. कहती हैं., संथाल समाज एक गैर बराबरी वाला समाज है. स्त्री पुरूष में भेद भाव रखता है. गांव समाज हो या परिवार सभी जगह असमानता है. घर के अंदर और घर के बाहर, दोनो जगह में हम असमानता देखते हैं. औरतों को सिर्फ सेवा भाव की नजरों से देखा जाता रहा है.

परिवार चलाने में औरतों का जीवन गल जाता है. उनकी समस्याओं को सामाजिक समस्या नहीं समझा जाता है. उसे व्यक्तिगत समस्या समझा जाता हैं. इसलिए सामाजिक कुलही दुड़ुप् में औरतों को बैठने नहीं दिया जाता है. समाज में रेप, महिला हिंसा, घरेलू हिंसा की घटनाएं बढ़ रहीं हैं. इसलिए कि जहाँ औरतो की समस्या सुनाने और सुनने वालों की बराबरी की भागीदारी नही हो, वह एकतरफा होता रहा है. अब तक सिर्फ मर्द सुने और फैसला देते आए हैं. ऐसे में समाज में बराबरी की बात कहना बेमानी होगी.

एक उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि एक परिवार में पति, पत्नी के बीच विवाद हुआ. कुलही दुड़ुप की बैठक में सिर्फ उस महिला को बुलाया गया और महिला को दोषी बना दिया गया. यदि वहाँ महिलाओं की भागीदारी होती तो घर के विवाद को सुलझा लिया जाता और घर बचा लिया जाता.

अधिकतर बैठक गांव की जमीन जगह को लेकर होती है. खतियान पर मर्द का नाम दर्ज है. ऐसे भी मामले आते है कि बेटी वाले पिता को लड़का को घर जमायी बना कर के लाते हैं. खाता खतियान में उनका नाम दर्ज होता है. अब जैसे सोरेन सोरेन में विवाह की परम्परा नहीं है, जमाई यानि दमाद मराण्डी या मुर्मू आ गया, तब वंशावली नहीं मिलने पर उसे कभी भी कोर्ट के माध्यम से हटा दिया जाता है. देखा जाए तो बेटी को चल अचल संपत्ति पर पैतृक हक- अधिकार नहीं होता है.

पहले सामूहिक रूप से वंशज की सम्पत्ति होती थी, जहाँ स्त्रियों को भी हक होता था. अब व्यक्ति सम्पत्ति का दौर है, जहाँ औरतों के हक के लिए कोई जगह नहीं हैं.

प्रमीला सोरेन कहती हैं संथाल आदिवासी समाज पुरूष प्रधान समाज है. वे अपने अपने इलाके के सबसे समृद्धि व सम्पूर्ण व्यवस्था में जीने वाला समाज है. यदि अब भी औरतों की बराबरी और समानता समाज में लायी जाये तो ऐसी समृद्धि व्यवस्था दुनिया को दिशा देगी.