बहुत दिनों के सुख दुख के बाद सरहुल पहुंचा है.

सोने के समान सरहुल चांद निकल आया है.

बहुत उद्यम, काम और सुख दुख के बाद यहां तक हम पहुंचे है. सबों को सरहुल की बहुत बहुत शुभकामनाएं.

आदिवासियों का प्रकृति पर्व सरहुल वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक प्रमुख पर्व है. पतझड़ के बाद पेड़-पौधों की टहनियों पर हरी-हरी पत्तियां जब निकलने लगती है, आम के मंजर तथा सखुआ और महुआ के फूल से जब पूरा वातावरण सुगंधित हो जाता है, तब मनाया जाता है आदिवासियों का प्रमुख “प्रकृति पर्व सरहुल“, साल के वृक्ष से नए साल की शुरुआत.

गाँव, शहर, गली रास्ता में सभी तरफ सरहुल पर्व को लेकर जोरशोर से तैयारी चल रही है. सभी तरफ सफेद लाल झंडा दिखाई दे रहा हैं. यह त्यौहार झारखंड में प्रमुखता से मनाया जाता है. इसके अलावा मध्य प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल में भी आदिवासी बहुल क्षेत्रों में इसे बड़े धूमधाम से मनाया जाता है.

परंपरा के अनुसार इस पर्व के दौरान गांव का पाहन मिट्टी का तीन घडा लेता है और उसे ताजे पानी से भरता है. अगले दिन प्रातः पाहन मिट्टी के तीनों घडों को देखता है. यदि घडा से पानी का स्तर घट गया है तो वह ‘अकाल‘ की भविष्यवाणी करता है और यदि पानी का स्तर सामान्य रहा तो उसे ‘उत्तम वर्षा‘ का संकेत माना जाता है. पहला दिन सरहुल पूजा में केकड़ा का विशेष महत्व है. यह पूजा घर के पुरुष करते हैं. केकड़े को पूजा घर में अरवा धागा से बांधकर टांग दिया जाता है. अरवा चावल का रोटी बनाकर साल के पत्ते में गिराते हैं. इस तरह पहला दिन का पूजा समाप्त होता हैं.

दूसरे दिन सुबह स्नान करके सभी पूजा के लिए सरना स्थल प्रस्थान करते हैं. उसके बाद घर में सभी नई फसल का सब्जी तैयार करते हैं, जैसे - कटहल ,सूटी, लाल गांधार साग, डाहु केकड़ा, मछली पूजा के नाम से प्रसाद के रूप में बनाया जाता है. साथ पूजा संस्थान को मिट्टी और गोबर से लीप वहाँ पर तीन साल के पत्ते व साल के पत्ते का दोना बना कर रखते हैं. पत्ता में अरवा चावल गिराते हैं. वहीं दोना में हड़िया के साथ ही मुर्गी का बलि देकर उसके रक्त को पत्थर में गिराते हैं. इस प्रकार मुर्गी की बलि दी जाती है तथा चावल और बलि की मुर्गी का मांस मिलाकर “सुंडी” नामक ‘खिचड़ी‘ बनाई जाती है.

ऐसी मान्यता है कि आदिवासियों का नृत्य ही संस्कृति है. इस पर्व में झारखंड और अन्य राज्यों में जहां यह पर्व मनाया जाता है, जगह-जगह नृत्य किया जाता है. महिलाएं सफेद में लाल पाड़़ वाली साड़ी पहनती हैं और नृत्य करती हैं. सफेद पवित्रता और शालीनता का प्रतीक है, जबकि लाल संघर्ष का. सफेद ‘सिंगबोंगा’ तथा लाल ‘बुरूंबोंगा’ का प्रतीक माना जाता है इसलिए ‘सरना झंडा’ में सफेद और लाल रंग होता है. इसी तरह सरहुल पर्व को धूमधाम से मनाया जाता है. सरहुल पर्व मनाने के बाद ही आदिवासी समाज के लोग नए फसल का उपयोग करते हैं. सरहुल में सरना स्थल पर साल के पेड़ के नीचे नए साल में सभी अच्छे से रहे व पेड़ पौधा, पर्वत, नदी- नाला सभी सुरक्षित रहें, इसकी कामना करते हैं.