नीता सहाय का उपन्यास ‘आंसुओं की गूंज’ भाषा सहोदरी हिंदी, नई दिल्ली, से प्रकाशित है. संक्षेप में कहा जाये तो यह उपन्यास पढ़ी लिखी नौकरी पेशा मध्यमवर्ग की एक औरत के जीवन की त्रासदी की कहानी है.

उपन्यास की नायिका शालिनी बचपन से ही लड़की होने के कारण उपेक्षित रही. मेधावी होने तथा पढ़ने की लगन के कारण आईएएस की परीक्षा तक पास कर जाती है, लेकिन उसके पिता बेटी के नौकरी के विरुद्ध थे, हालांकि वे खुद एक जज के पद पर कार्यरत थे. इसलिए शालिनी ने एक छोटे से स्कूल में शिक्षिका के रूप में काम करना शुरु कर दिया. बाद में रुरकेला कंपनी के स्कूल में शिक्षिका के पद पर चयनित हो कर वहां काम करने लगी. माता- पिता बेटी की शादी ठीक कर लौटते हुए रेल दुर्घटना में मारे जाते हैं. शालिनी की शादी उस व्यक्ति से नहीं हो पाती है. वह अपने सहारे के लिए स्वयं ही आगे बढ़ कर प्रमुख समाचार पत्रों में वैवाहिक विज्ञापन देती है. देश विदेश से कई लड़कों के प्रस्ताव आते हैं. उनमें से शालिनी अपने लिए एक स्वजातीय लड़के को चुन लेती है जो देखने सुनने में अच्छा था और बीएसएफ में नौकरी करता था. दोनों की शादी हो जाती है. कुछ वर्षों तक दोनों अलग-अलग जगहों पर नौकरी करते रहे. छुट्टियों में जब भी मिलना होता, वे खुश रहते. लेकिन धीरे-धीरे अमन की रुचि शालिनी में घटती जाती है. यहां तक कि जब भी वे मिलते, शालिनी को अमन से प्रताड़ना ही मिलती. शालिनी अमन के अत्याचार से त्रस्त थी, लेकिन वह अमन को प्रेम करती थी और उसके साथ रहना चाहती थी.

शालिनी के अनुसार अमन के परिवार वाले उसके वेतन में से अपना हिस्सा न पाकर नाराज थे और उन्होंने ही अमन के कान भरे थे. शालिनी के उपर अपने भैया और भाभी का भी दायित्व था, इसलिए वह अपने ससुराल वालों को मदद नहीं कर पाती थी. अमन शालिनी के पास नहीं आता था, लेकिन फोन पर कोर्ट का भय दिखाता था. लेकिन उसने तलाक नहीं ली. शालिनी उसके वियोग में आंसू बहाती रहती है. गर्भवति हो कर भी अविकसित तथा अल्पायु बच्चे को जन्म देने से बचने के लिए वह गर्भपात कराती है. जीवन के अंतिम पहर में अमन को अपनी गलती का एहसास होता है और वह शालिनी के पास लौटता भी है, लेकिन तब तक शालिनी के अंदर की सारी कोमल भावनाएं समाप्त हो जाती हैं, तब न तो उसके पुरुष शरीर की जरूरत रही, न उसकी सुरक्षा की. फिर भी पति की सेवा करना अपना कर्तव्य समझ कर वह उसके साथ रहती है.

उपन्यास की एक पात्र अमृता है जो एक लेखिका है. उसे पुराने आलमारी के दराज से एक डायरी व कुछ कागजात मिलते हैं. डायरी पर शालिनी का नाम था. शालिनी का पता खोजने के क्रम में वह डायरी खोलती है और उसे पढ़ने से अपने को रोक नहीं पाती है. उपन्यास के बावन पेज तक उसी डायरी में शालिनी का आत्मालाप रहता है जिसमें केवल शालिनी की वेदना व्यक्त होती है. अमृता अपने पति शशांक की मदद से शालिनी का पता खोज लेती है और उससे मिलने जाती है. शालिनी की डायरी को पढ़ कर अमृता उसके व्यक्तित्व से बहुत ही प्रभावित रहती है. अमृता शालिनी से पूछती है कि पति का इतना अत्याचार सहते हुए भी उसने तलाक क्यों नहीं लिया? शालिनी का जवाब होता है कि उसके संस्कार उसे ऐसा करने नहीं देते हैं. उसके तलाक लेने से उसके स्वर्गवासी पिता की प्रतिष्ठा पर आंच आयेगी. इसके अलावा औरत ही घर में शांति बनाये रख सकती है. यदि औरतें इंकलाब करने निकले तो आधी से अधिक दुनियां तबाह हो जायेगी और परिवार नाम की संस्था नष्ट हो जायेगी.

तब अमृता शालिनी से पूछती है कि तब औरतो का कष्ट दूर कैसे हो?

शालिनी के अनुसार शिाक्षा ही लोगों में अच्छा संस्कार ला सकती है. घर में लड़कियों को सहनशीलता का पाठ पढ़ाया जाता है जो बेकार है. उसे आत्मविश्वास के साथ सर उठा कर जीने लायक शिक्षा देनी चाहिए. लड़की कोई अपमान की वस्तु नहीं, उसकी भी अपनी पहचान है जिसकी अवहेलना नहीं की जा सकती. लड़कों को भी यह शिक्षा मिलनी चाहिए कि लड़कियों को सम्मान देना उनका कर्तव्य है.

शालिनी के इस जवाब से तो यह लगता है कि औरतों को पुरुषों का अत्याचार सहते हुए घर को बचाने के लिए चुप रहना है. औरत की स्थिति में सुधार तभी संभव है जब पुरुषों की सोच में बदलाव आयेगा. लेखिका को औरतों के साथ होने वाली हिंसा का एहसास है. उसका समाधान भी वे चाहती हैं, लेकिन इसके लिए उसे शालिनी का बताया मार्ग ही जंचता लगता है. शालिनी ने पिता की प्रतिष्ठा बचाना चाहा. पति से प्रेमवश तालाक नहीं लिया और अपने अजन्में बच्चे को पुत्र मान कर लंबी-लंबी चिट्ठिया लिख कर उसे अपना सहारा बनने को कहती रही. लेकिन ये सारे पुरुष उसके कष्टों से उसे मुक्ति नहीं दे पाये.

अब यहां प्रश्न उठता है कि क्या पुरुष प्रधान भारतीय समाज में पुरुष का चरित्र बदलेगा? पुरुष हमेशा स्त्रिी को अपना अनुगामी ही माना है, बराबर का नहीं. इसलिए ऐसे समाज में महिला को अपने अस्तित्व को बचाने के लिए सबसे पहले अपने आत्मसम्मान को प्रमुखता देनी होगी. पिता की प्रतिष्ठा, परिवार और समाज को बचाने की जिम्मेदारी केवल महिलाओं पर नहीं है. अपने सम्मान की रक्षा के लिए विरोध करना पड़े तो करना चाहिए. जब तक स्त्री पुरुष समानता की नींव मजबूत नहीं होगी, एक स्वस्थ परिवार या समाज की रचना नहीं होगी.

आपको लेखिका के कथ्य से ऐतराज हो सकता है लेकिन उपन्यास की भाषा अच्छी है और उपन्यास पठनीय है.