अपने लेखन और कर्म से समाज के सार्थक बदलाव की प्रक्रिया में जीवन भर लगी रहीं कनक जी के लेखों का यह संकलन उनकी बेचैनी का जीवंत दस्तावेज है. इन लेखों को पढ़ते हुए कोई भी समझ सकता है कि एक सामान्य गृहणी और नौकरी का दायित्व निभाते हुए भी वह किस तरह अपने आसपास की दुनिया में जारी विषमता और अन्याय के प्रति कितनी संवेदनशील थीं. संकलन के शीर्षक ‘स्त्रीशब्द’, जिसका विमोचन सात मई को टीआरआई सभागार (मोराबादी) में किया गया, से ही सपष्ट है कि लेखिका के सोच का केंद्र मूलतः समाज में स्त्री की दोयम स्थिति और उसके साथ जारी भेदभाव ही था. लेकिन पूरे संकलन के छोटे बड़े लेखों और टिप्पणियों को पढ़ने से यह भी पता चलता है कि समाज, देश और दुनिया के घटनाक्रम पर उनकी पैनी नजर रहती थी. हर समाज के हर तरह के भेदभाव के खिलाफ खुल कर लिखना वह अपना दायित्व मानती थीं. सत्ता की निरंकुशता हो, लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण हो, संप्रदायिकता हो, ऑनर किलिंग हो, जाति-धर्म के नाम पर उत्पीड़न हो, उनकी कलम मुखर रहती थी. वैसे पहला ही लेख ‘…ताकि एक बेहतर समाज बन सके’ संकलन और लेखिका के सोच की मूल दिशा बताने के लिए पर्याप्त है.
उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष (2021) के अप्रैल माह में वह कोरोना ग्रस्त हो गयी थीं और दो मई को उनका असामयिक निधन हो गया था. उनके परिजन और मित्र सभी स्तब्ध. कैसे इस हस्ती को याद रखा जायेय कैसे समतामूलक समाज की स्थापना के उनके संघर्ष को सामने लाया जाये, यह पुस्तक इसी सोच का परिणाम है.
जैसा कि इस किताब के ‘लेखक के वारे में’ शीर्षक लेख में भी बताया गया है, कि कनक जी ने 1974 के जेपी आंदोलन से सामाजिक जीवन की शुरुआत की. फिर संघर्ष वाहिनी की होलटाइमर बनीं. बोधगया के भूमि मुक्ति आंदोलन से लंबे समय तक जुडी रहीं. फिर पारिवारिक जवाबदेहियों के कारण सरकारी सेवा से जुड़ गयीं. लेकिन सामाजिक सरोकार और समाज परिवर्तन का लक्ष्य कभी ओझल नहीं हुआ. इस तरह इनकी पहचान स्थापित लेखक के बजाय समाजकर्मी की रही है. हर तरह की विषमता के खिलाफ संघर्ष करने वाली एकटीविस्ट की रही है. खास कर स्त्री विरोधी मान्यताओं और पुरुष श्रेष्ठता की अवधारणा को खत्म करने की बेचैनी के कारण उनके लेखन का यह केंद्रीय विषय रहा है, जो इस संग्रह में भी झलकता है. घर और दफ्तर के दायित्वों को निभाते हुए, लोगों को खास कर महिलाओं को जागरूक करने की ललक उन्हें और भी खास बनाता है. वह जीवन के अंत तक समतामूलक समाज की स्थापना हेतु चल रहे संघर्ष का मजबूत हिस्सा रहीं.
यह संकलन स्त्री केंद्रित है, तो स्वाभाविक ही इसमें महिला दिवस पर कई लेख हैं. और महिला विधेयक के लंबित रहने पर आक्रोश भी है. इस संग्रह में मुख्य से उनके एवं सहयोगियों द्वारा लंबे समय तक निकलती रही महिला पत्रिका श्संभवाश् एवं श्संभवा इंजोरश् में छपे लेखों के अलावा अन्य पत्र पत्रिकाओं, ऑनलाइन पत्रिका ‘साथी.जोहार’ आदि में प्रकाशित और फेसबुक पर लिखी उनकी छोटी-बड़ी सामयिक टिप्पणियों को शामिल किया गया है. इस किताब में स्त्री की समस्याओं पर केंद्रित ‘स्त्री-प्रश्न’ खंड में 39 लेख हैं एवं विविध खंड में 41 लेख व टिप्पणियां शामिल हैं.
पूरे देश में होने वाली प्रमुख घटनाओं के साथ-साथ लगभग पच्चीस में वर्षों की घटनाओं का जिक्र इन लेखो में मिलता है. स्वाभाविक ही ‘निर्भया कांड’, बिलकिस बानो (गुजरात) रेप केस, इमराना, सूर्यनेल्ली रेप प्रकरण (केरल), हेंदेगढ़ा (झारखंड), भंवरी देवी रेप केस (रजस्थान) जैसी घटनाओं पर तीखी टिप्पणी के साथ स्पष्ट दृष्टि की व्यापकता देखी जा सकती है. 2006 में पीएन बोस कम्पाउंड (रांची) की हृदयविदारक घटना, जिसमें पांच बेटियों के साथ माता-पिता का शव छत से लटका मिला थाय और बोकारो में एक भाई द्वारा दहेज की समस्या से घर को बचाने के लिए अपनी तीन बहनों को जहर पिलाने की घटना के आधार पर दहेज समस्या की विभीषिका की ओर बखूबी ध्यान आकृष्ट किया गया है.
यह बताने की जरूरत नहीं कि विवादस्पद नागरिकता कानून (सीएए) तथा कृषि कानूनों के खिलाफ, झारखंड सहित देश भर में सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ लगाये गये देशद्रोह के मुकदमों के विरोध में तो लेख हैं ही. संकलन का आवरण चित्र भी गवाह है कि कनक जी समाजकर्मी थीं. इस चित्र में वह झारखंड में फादर स्टेन स्वामी (अब दिवंगत) सहित बीस लोगों पर देशद्रोह का मुकदमा दायर किये जाने के खिलाफ हुए प्रसर्शन में राजभवन (रांची) के सामने कार्यक्रम में नेतृत्त्व की भूमिका में दिख रही हैं. यानी वह सिर्फ लिखती नहीं थीं, सड़क पर उतर कर प्रतिवाद में भी शामिल रहती थीं.
लेखिका ने अपने लेखों के माध्यम से मनुवादी व्यवस्था पर चोट तो की ही है, साथ ही मुसलिम समाज की कुप्रथाओं और आदिवासी समाज में आयी विकृतियों पर भी लिखा है. इनके अलावा नागरिकता कानून में हुए विवादास्पद संशोधन के खिलाफ, देश एवं झारखंड में राजद्रोह के मुकदमों के विरोध में भी लेख मिलते हैं. कनक जी ने अपने लेखों के माध्यम से मनुवादी व्यवस्था पर चोट तो की ही है, साथ ही अन्य समुदायों की स्त्री विरोधी मान्यताओं और परम्पराओं को भी रेखांकित किया है.
तीन तलाक से सम्बद्ध सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ‘यह महिलाओं की जीत तो है, मंजिल नहीं’ शीर्षक लेख (पृष्ठ 64) में वह लिखती हैं, “…इससे औरतों के लिए बड़ा बदलाव आने की उम्मीद बनी है… इस अर्थ में भी कि मुसलिम औरतों पर मुसलिम विचार करें, हिंदू औरतों को हिंदुओं (पुरुषों) के भरोसे रहना होगा, के बजाय सभी समुदायों के मामले में, औरतों के हकों पर हम सभी विचार कर सकते हैं और हमारा कानून विचार करेगा, भी स्थापित हुआ है…”
साथ ही संकलन में ‘मुसलिम समाज में खाप’ और ‘आदिवासी समाज में अपसंस्कृति की घुसपैठ’ शीर्षक लेख भी हैं. इसके अलावा ‘हां, मुझे पाकिस्तान से लगाव है’, ‘पटना विश्वविद्यालय की अपनी शान थी’ जैसे लेख उनके चिंतन की विविधता दर्शाते हैं. तो मणिपुर की इरोम शर्मीला, पकिस्तान की मलाला यूसफजई के साहस पर संक्षिप्त टिप्पणियां हैं, तो ‘राजनीति में बढ़ती हिंसा’ पर चिंता भी है. कोलकाता में हुए राष्ट्रीय महिला सम्मलेन और वर्धा में हुए सर्वोदय समाज सम्मलेन पर विस्तृत रपट भी है. “वर्णिका’ के बहाने…” और ‘’लंपट’ नहीं था रोमियों’’ शीर्षक दो लेख राजनीति और आंदोलन से एकदम भिन्न चरित्र और मिजाज के लेख हैं. ‘‘जशोदा बेन मोदीः एक ‘आदर्श’ हिंदू महिला की नियति” शीर्षक लेख बिना तिक्तता के अघोषित रूप से त्याग दी गयी महिलाओं की स्थिति पर रोचक, मगर गंभीर टिप्पणी है.
अंत में यह कहा जा सकता है कि के यह किताब उन महिला - कर्मियों के लिए विशेष रूप से लाभप्रद होगी जो सामाजिक विषमता के खिलाफ संघर्ष करना चाहती हैं या कर रही हैं.