मूल रूप से हिंदी में लिखे उपन्यास ‘रेत समाधि’ को 2022 के बुकर पुरस्कार दिये जाने पर गीतांजलिश्री को बधाई. भले ही यह पुरस्कार डेजी राॅकवेल द्वारा इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘टुब आफ सैंड’ के बाद मिला हो. यह भी स्पष्ट है कि निर्णायक मंडल ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी की सत्ता को स्वीकर किया है और महिला लेखन को समुचित स्थान दिया है.
1987 में प्रकाशित बेलपत्र से लेकर 2018 तक की लंबी संघर्षमय लेखन यात्रा के बाद उन्हें यह पुरस्कार मिला है. यह उपन्यास एक अलग पहचान लिये है. लीक से हट कर चलने, कथानक शिल्प, भाषा, प्रतीक, सभी कुछ अलग नये अंदाज में है.
रेत समाधि पर चर्चा करते हुए इस उपन्यास की यह पंक्ति ‘जमाने की फितरत जानो, लोग उब जाते हैं. हर वक्त कुछ घटना चाहिए, नाटकबाजी चले, नही ंतो लगता है, कुछ हो नहीं रहा है. जिंदगी अगर एक रफ्तार, एक ढर्रे पर चले तो बेहरकत लगता है- पृष्ट 245, महत्वपूर्ण है. बल्कि कहा जा सकता है कि उपन्यास का मूल स्वर इन्हीं पंक्तियों द्वारा अभिव्यक्त हुआ है. कथा, भाषा, शिल्प, संवाद सभी नाटकीय, अस्पष्ट हैं. यहां तक कि किरदार भी कुछ जागे, कुछ खोये. एक दरवाजा खोलो तो अंदर असंख्य दरवाजे. उसमें कुछ ध्वनियों, प्रतिघ्वनियों के सहारे आप अपने विवेक, अनुभव के आधार पर कहानी का अंदाज लगा सकते हैं. उपन्यास तीन हिस्सों में बंटा है. पीठ, धूप और हद- सरहद.
पीठ में 80 वर्षीया वृद्धा की कहानी है जो पति की मृत्यु के बाद जीवन से विमुक्त होकर परिवार की ओर पीठ किये पड़ी रहती है. बेटा, बेटी, बहु, पोता, सबों के प्रयास के बावजूद वह नहीं मानती बल्कि और सिमटती जाती है जो ठीक से चल नहीं पाती, वह अचानक घर से गायब हो जाती है.
धूप के अंतरगत उसके जोश उमंग की कहानी है. धूप उष्मा जीवन का प्रतीक है. वह सारी वर्जनाओं को तोड़ती हुई अपनी बेटी के घर पहुंच जाती है. यहां रोजी जो थर्ड जेंडर है और बेटी के प्रयास से वह स्वस्थ ही नहीं होती, बलिक तरोताजा होकर नये सिरे से जीवन शुरु करती है. उसके जीवन की दमित इच्छायें बलवती हो हिलोड़े मारने लगती हैं और ऐसा लगता है, मानो वह युवावस्था में लौट आयी हो. बेटी मां बन जाती है और मां बेटी. तभी उसे अपने प्रेमी की याद आती है. वह उसकी तलाश में निकल पड़ती है.
हद सरहद में वह बेटी के साथ पाकिस्तान पहुंच जाती है. यह भाग विभाजन के दर्द से भरा है. महिलाओं पर होने वाले अत्याचार, नफरत, खौफ का मंजर हमे यह सोचने को मजबूर करती है कि यह कब तक रहेगा. वह बिना बीजा के सरहद पार आ जाती है, तो जाहिर है, गिरफ्तार होगी. पूछने पर वह बोलती है कि वह किसी सरहद को नहीं मानती. वह तो आयी नहीं, बलिक यहां से गयी है. लाहौर में घूमते-घूमते मदहोशी में उसे भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, राही मासूम रजा, खुशवंत सिंह जैसे साहित्कारों की याद आती है. अंततः वह अपने प्रेमी अलि अनवर को ढ़ूढ़ ही लेती है.
उपन्यास में देशज परिवेशों को आधुनिक कलेवर देकर उसे जीवंत किया गया है. कौवा, तितली, बरगद, गुलदावदी इत्यादि फूल पोधे, पशु पक्षियों से इनका संवाद हमें अचंभे में डालता है. इसकी अनुगूंज पूरे उपन्यास में सुनाई देती है.
एक और खास बात जो हमारा ध्यान आकृष्ट करती है, इसमें सभी मुख्य पात्र स्त्रियां हैं- चंद्रप्रभा, रोजी और बेटी. पुरुष पात्र उपस्थिति दर्ज नहीं कर पाते. यह उपन्यास इस बात का भी प्रमाण है कि 376 पृष्ठ का विस्तृत फलक होने पर भी बिना देह चित्रण के पाठकों द्वारा सराही जा सकती है और अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि पा सकती है.
पूरे उपन्यास को पढ़ने के बाद यह लगता है कि हम भले ही भाषा, शिल्प, बिंब द्वारा गीतांजलिश्री की रचना पर चमतकृत हो जायें, लेकिन सीधे सादे, सहज, सरल बुद्धिमान के लिए यह एक वैचारिक कवायद की तरह होगा जो बिना दिल पर दस्तक दिये उपर-उपर को निकल जाता है.