तीज, करवाचौथ आदि को मना कर भारतीय महिलाएं संतुष्ट हैं कि उन्होंने अपने पतियों की उम्र बढ़ा दी है. जिन महिलाओं के सामने रोजी रोटी की समस्या है, जिन्हें मजदूरी करनी है, उनके लिए तो इन व्रतों का कोई महत्व नहीं है, लेकिन खाते पीते घरों की महिलाएं, जो ब्रांडेड लहंगा पहन सकती हैं या वे आधुनिकाएं, जो फटे जींस पर भी चुनरी ओढ़े गहरे लाल लिपिस्टिक लगाये अपने सारे गहने पहन कर चंद्रोदय के समय छलनी में पति का मुंह निहार कर निहाल होती हैं, उनके लिए इसका खासा महत्व है.

तो, इसमें उनकी कोई गलती नहीं है. वे इस बात से भी खुश होती हैं कि उन्हें जिंदा रहने का मौका मिला, तभी वे इन सारी चीजों को कर रही हैं. उन्हें गर्भ में नहीं मारा गया, किसी तरह पालपोश कर विदा कर दिया गया या फिर विधवा हो कर रहने या पति की चिता पर सती होने से तो वे बच गयीं. पुरुष भी स्त्रियों को व्रत उपवास करते हुए देख कर खुश होते हैं.

पितृ सत्तात्मक भारतीय समाज में लड़कियों को सावित्री, अहिल्या, अनुसूईया आदि महान पतिव्रताओं की कहानियां सुना कर यह बताया जाता है कि वे पुरुषों पर निर्भर हैं. पुरुषों की लंबी आयु और स्वास्थ कामना के लिए उन्हें विभिन्न प्रकार के उपवास और व्रत करने चाहिए. उसी में उनकी भलाई है.

पुरुष ही परिवार का आर्थिक आधार होता है. महिलाओं को तो घरों में रह कर गैर आर्थिक काम करने हैं. बचपन से सुन रहे इन बातों पर लड़कियों को यह विश्वास हो जाता है कि वे तीज या करवाचौथ करके अपने पति की आयु बढ़ा सकती हैं और उन्हें स्वस्थ रख सकती हैं.

अब तो आधुनिकाएं करवाचौथ पर पति के द्वारा दिये गये महंगे उपहार एक दूसरे को दिखा कर अपनी प्रतिष्ठा भी बढ़ा रही होती हैं. ऐसे में यह विचार आता है कि पढ़ी लिखी डिग्रियां हासिल कर नौकरी कर रही ये आधुनिक लड़कियां कभी यह भी सोचती हैं कि इन व्रतों को कर लेने से अपने पतियों को वे सचमुच में दीर्घायु बना रही हैं. तब तो कोरोना जैसी महामारी में किसी पुरुष की मृत्यु नहीं होनी चाहिए थी.

तीज या करवाचौथ के समय बाजारों की भीड़ देख कर तो यही लगता है कि पुरुष इससे लाभान्वित हांे या न हों, बाजार जरूर इन मौकों पर फलते फूलते हैं. भारतीय समाज में ऐसा कोई भी व्रत या उपवास नहीं है जो पुरुषों द्वारा महिलाओं के स्वास्थ तथा आयु वृद्धि के लिए की जाती हो.

आज कल कई पतियों को पत्नी के साथ उपवास कर पत्नी के प्रति अपने प्रेम प्रदर्शन करते देखा जाता है. लेकिन वे अपनी पत्नियों को यह नहीं समझा पाते हैं कि उन्हें व्रत, उपवास करने की कोई जरूरत नहीं. ये सारे व्रत बार बार स्त्री-पुरुष के अंतर को प्रदर्शित करते हैं और हमेशा पुरुष को स्त्री से श्रेष्ठ बता कर महिलाओं के पिछड़ेपन को बढ़ावा ही देते हैं.