हथिया गोंदा में आदिवासी समाज ने पारंपरिक संास्कृतिक जतरा 14 जनवरी, मकर संक्रांति के शुभ दिन पर उत्साह पूर्वक आयोजित किया जिसमे बच्चे, युवा, बूढ़े सभी औरत मर्दौं ने भाग लिया. नियमानुसार पूजा से लेकर नृत्य किया. लोगों में बहुत दिनों बाद उत्साह देखने को मिला. इस विशेष अवसर के लिए ‘हथिया बाबा’ मंदिर और उसके आस पास के क्षेत्र को रंग बिरंगी रौशनी से सजाया गया था.

आदिवासियों के इस वार्षिक मेले का आयोजन साल के शुरुआती महीनें में अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग दिनों में होता है. इसमें आसपास के तमाम गांवों से काफी संख्या में आदिवासी समाज के लोग पहुंचे और मेले का लुफ्त उठाया. सुबह सभी नहा धो कर हथिया गए और पूजा किया. सभी कांसा का लोटा ओर उसमे फूल, पानी भर कर हथिया बाबा के चारो ओर गीत गाते, मांदर बजाते पहुंचे. परंपरागत तरीके से पूजा किया और प्रसाद के रूप में चिवड़ा और गुड़ बाटा गया. और वापस अपने घर गये.

शाम होने के बाद अभी बच्चों से लेकर बूढ़,े बुजुर्ग जतरा जाने के लिए झंुड बना नाचते गाते निकल पड़े. औरतें लाल पाड़ की साड़ी और ओर पुरुष सफेद धोती पहन कर शामिल हुए. जतरा स्थान पहुँचने के बाद सभी मांदर, ढोल, नगड़ा लेकर पहुंचे थे और मांदर की थाप ऐसी कि पांव खुद ब खुद नाचने के लिए मचल पड़े. ढोल, नगाड़ों की धुन बजने लगी किसी और सब्र का बांध टूट गया मानों. इक्का दुक्का अपवादों को छोड़ जतरा के इस नृत्य में सभी आदिवासी स्त्री, पुरुष, बच्चे शामिल हुए. और जतरा को और भी खास बना दिया. एक तरह का उन्माद और नशा सभी पर सवार हो गया और अपने दुख-तकलीफों को भूल सभी थिरक पड़े.

हमारे अगुवा कह गये हैं - ‘जे नाची से बाची’, यानि जो नाचेगा, वही बचेगा. यही आदिवासी समाज के जीवन का मूल मंत्र है और इसी मूल मंत्र के सहारे प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आदिवासी अपनी जिजीविषा बनाये रखता है. आदिवासियों का जतरा झारखंड की संस्कृति का प्राण है. इसे संजो कर रखना हमारे अस्तित्व और अलग पहचान के लिए जरूरी है. एक खास बात यह रही कि इन नृत्य गीतों में परंपरागत वाद्य यंत्र का ही व्यवहार हुआ. हम सब का कर्तव्य है कि हम अपने इस सांसकृतिक विरासत को बचा कर रखें और आने वाली हर पीढ़ी को अपनी गौरवशाली संस्कृति के बारे में जानकारी दंे.