सवालः सरजी, आज देश में सबसे ज्यादा कौन खुश हैं?
जवाबः पूंजीपति! इससे शायद ही कोई पूंजीपति असहमत होगा।
सवालः क्या देश में कोई पूंजीपति मोदी-सत्ता के विरोध में नहीं हैं?
जवाबः पुत्तर, यह सवाल अपने आप में गहन खोज का ‘रिस्की’ मामला है दृ सिर्फ खोज करनेवाले के लिए नहीं, बल्कि ‘विरोधी’ पूंजीपतियों के लिए भी! क्योंकि तब उनके लिए यह ‘पानी में रहकर मगर से बैर’ का मुहावरा के सिर्फ रिपीटीशन का मामला नहीं, बल्कि ‘गजराज और बलवान ग्राह’ के बीच भिडंत की पुराण कथा के नये क्लाइमेक्स जैसा इश्यू हो जाएगा। ऐसे में कौन पूंजीपति चाहेगा कि वह ‘आ बैल मुझे मार’ के पचड़े में पड़े?
सवालः क्या जिन पूंजीपतियों की पिछली सरकारों से दोस्ती थी, वे भी वर्तमान मोदी सरकार के विरोधी नहीं हैं?
जवाबः होंगे, लेकिन उन पूंजीपतियों की भी पिछली सरकारों से दोस्ती की तुलना में आज की मोदी सरकार से दोस्ती की खुशी का कोई ठिकाना नहीं!
सवालः वाह! ये क्या बात हुई? समर्थक पूंजीपति भी खुश और विरोधी भी? क्या मोदी सरकार से दोस्ती की शर्तों और पिछली सरकारों से दोस्ती की शर्तों में कोई फर्क नहीं रहा?
जवाबः बेटे, आप सुनते नहीं हो, देश के पूंजीपति अब क्या कहते हैं? वे खुलकर कहते है दृ “मोदी-राज के पहले की हर सरकार से हमारी दोस्ती की एक शर्त थी। पिछली तमाम सरकारें मानती थीं कि पूंजी एक शक्ति है। हम सदियों से यही कहते आ रहे थे। लेकिन हम पूंजी के निर्माण, बचत और वृद्धि के लिए जो चाहे वह नहीं कर सकते थे, क्योंकि वे सरकारें यह राग अलापती रहती थीं कि पूंजी शक्ति है, लेकिन श्रम भी शक्ति है! ऊपर से जब-तब सरकारें यह भी कहती थीं कि ‘पूंजीपति’ और ‘श्रमिक’ दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं। जैसे ही सरकारें श्रमिक को कहती थीं कि उनका श्रम भी एक शक्ति है, वे हम पूंजीपतियों का गुलाम न रहकर उसका भागीदार बनने की कल्पना बुनने लगते थे। वे नारा लगाने लगते थे दृ दुनिया के मजदूरो एक हो। श्रमिक यदि स्वयं सर्वेसर्वा बनने की आकांक्षा रखे, तो लाजिमी है कि वह उस मुर्गी को ही हलाल कर डाले, जो सोने के अंडे देती है। खुदा-न-ख्वास्ता अगर मजदूर पूंजीपति को मार डाले, तो अंतिम और अवश्यम्भावी परिणाम क्या होगा? खुद ‘मजदूर’ की मृत्यु!
सवालः सर, लेकिन राज्य-सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत बनाये रखने के लिए पिछली सरकारें पूंजीपति और श्रमिक की मूलभूत समानता की नीति को कबूल करती थीं, तो इसमें पूंजीपतियों के लिए आपत्ति की क्या बात थी?
जवाबः कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन पूंजीपतियों का कहना था कि सरकार की इस नीति का लक्ष्य पूंजीपति का नाश नहीं है - यह दोस्ती की शर्त में स्पष्ट होना चाहिए। सो उन्होंने सरकार को सुझाव दिया कि शासक होने के नाते वह एक ऐसी ‘राष्ट्रीय वृ६त्ति’ बनाने की राजनीति चलाए, जो पूंजीपति के लिए लाभप्रद हो, और जनता में यह एहसास फैलने से रोके कि पूंजीपति उनके शोषक हैं। सत्ता-राजनीति पर काबिज शासक जनता को यह सोचने की प्रेरणा दे कि पूंजीपति वस्तुतरू पीड़ित जनता के हित के लिए ही अपनी पूंजी में अधिकाधिक वृद्धि करते हैं। और उस पूंजी से वे निरंतर ऐसे सामाजिक कार्य कर रहे हैं, जिनसे समाज के पीड़ित लाभ उठा रहे हैं। पिछली सरकारों ने अपने पॉलिटिकल नैरेटिव में सुधार किया - इस सुझाव को दोस्ती की शर्त के रूप में स्वीकार किया।
सवालः सर, लेकिन मोदी जी ने घोषणा की थी कि अगर वे चुनाव जीतकर सत्ता में आएंगे, तो विदेशी बैंकों में पड़ा पूंजीपतियों का ‘कालाधन’ देश में ले आयेंगे और हर देशवासी के खाते में 15-15 लाख रुपया डाल देंगे! इससे कई पूंजीपतियों में डर पैदा हुआ होगा?
जवाबः डर जरूर पैदा हुआ, लेकिन मोदी सरकार ने सत्ता पर काबिज होते ही पूंजीपतियों के इस पुराने शर्त-सुझाव को नये पॉलिटिकल नैरेटिव में बदल दिया! आपदा को अवसर बनाने का नैरेटिव। इससे कालाधन को सफेद करने के लिए समाज-सेवा का कम्बल ओढ़ कर घी पीनेवाले डरपोक पूंजीपतियों को भी ‘डर के आगे जीत है’ टाइप की लाठी मिल गयी। इसलिए पूंजीपति इस घोषणा से नहीं घबराए। उन्होंने कोई आपत्ति नहीं की। क्योंकि इसमें उन्हें पूंजी की ‘सत्ता’ और राजनीति की ‘सत्ता’ के बीच दोस्ती की एक नई थ्योरी की दस्तक सुनाई दी - यह एक तरफा नुकसान के नाम पर उन्हें दो तरफा लाभ दिलाने की थ्योरी बनी।
सवालः अब ये क्या है? पूंजीपतियों ने मोदी के वादे में निहित नुकसान की आपदा को फायदे का अवसर मान लिया?
जवाबः हां, पिछले आठ साल के कृत्यों से ‘सबका साथ-सबका विकास का यह अर्थ देश के छोटे से लेकर बड़े पूंजीपति तक को समझ में आ गया कि मोदी सरकार ‘पूंजीवाद’ के बाधा-शून्य विकास के लिए खम ठोंक रही है। आम जनता में विकास का ऐसा नेटवर्क बिछा कि शुरू के तीन साल में ही क्लीयर हो गया कि भारत में अब ‘देशभक्ति’ और ‘पूंजीवाद’ परस्पर विरोधी नहीं रहे! जबकि आजादी के बाद के सत्तर साल में देश की कोई भी सरकार ‘देशभक्ति’ और ‘पूंजीवाद’ को परस्पर विरोधी मानने की जनता में कायम पुरातन ‘प्रवृत्ति’ को कुंद नहीं कर सकी थी। लेकिन ‘मोदी सरकार’ ने सात साल में ही यह कर दिखाया!
सवालः सर-सर, जरा रुकिए, आप ये क्या कह रहे हैं? मोदी सरकार के आने के पहले भी देश के ‘बुद्धिजीवी’ वर्ग में यह नैरेटिव चलता था कि पूंजीवाद और पूंजीपति से - दोनों से ‘पूंजी’ बिल्कुल भिन्न होती है। श्रम भी एक प्रकार की पूंजी ही है। लेकिन इस पूंजी के विनियोग के लिए कोई न कोई आर्थिक उपक्रम जरूरी है। और इसके लिए पूंजीपति की, कुछ-न-कुछ, चाहे वह कितना ही कम हो, पूंजी की जरूरत होती ही है। इसलिए कोई भी ‘पूंजीपति’ देशभक्त हो सकता है..।
जवाबः हां, उस नैरेटिव में यह बात रेखांकित थी कि पूंजीपति देशभक्त हो सकता है, लेकिन उसमें यह बात भी निहित थी कि पूंजीपति देशभक्त नहीं भी हो सकता है। क्योंकि उस नैरेटिव में यह भी कहा जाता था कि कोई पूंजीपति उसी तरह देशभक्त हो सकता है और नहीं भी हो सकता है जैसे कोई मजदूर देशभक्त हो सकता है और नहीं भी हो सकता है! पूर्ववर्ती ‘मनमोहन सरकार’ दस साल में चाह कर भी इस नैरेटिव को बदलने का कमाल कर दिखाने में विफल रही, ‘मोदी सरकार’ ने सात-आठ साल में वह कर दिखाया। उन्होंने ‘न रहे बांस और न बजे बांसुरी’ की तर्ज पर ‘देशभक्ति’ का पुराना नैरेटिव ही बदल दिया! इसके परिणामस्वरूप ‘पूंजीवाद’ और ‘देशभक्ति’ में विरोध का पुराना नैरेटिव बेमानी हो गया और यह नया नैरेटिव सुनामी बन गया कि देश में पूंजीवाद का विरोध सबसे बड़ा ‘देशद्रोह’ है…!
सवालः सर, क्लास की घंटी बज गयी। लेकिन यह सवाल उठ गया है कि जिस व्यवस्था में हम-आप जी रहे हैं इसे क्या कहें? लोकतंत्र का पूंजीवाद या पूंजीवाद का लोकतंत्र?
जवाबः पुत्तर, ठंड रख। यह ‘क्लास’ का नहीं, ‘मास’ का सवाल है। इस सवाल से जुड़ी स्टोरी गरम है। इसके लिए अलग क्लास लेना पडेगा।