महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक उपलब्धियों का सम्मान करने और महिला अधिकारों को बढ़ावा देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस एक सदी से भी अधिक समय (1910-11) से मनाया जाता है. इसकी शुरुआत मजदूर महिलाओं और वामपंथी, नारीवादी महिलाओं ने की थी, लेकिन आज यह पूरी दुनिया में सभी महिलाओं का प्रिय दिवस बन गया है.

हमारे समय का विरोधाभास यह है कि महिलाओं के नागरिक अधिकारों और मजदूर महिलाओं के श्रम अधिकारों की दावेदारी के प्रतीक के रूप में यह दिन शुरू हुआ, जिस संघर्ष में महिलाओ ने वोट का अधिकार, स्कर्ट छोड़ पैंट पहने का अधिकार , साईकल चलाने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और न कितने छोटे बड़े अधिकारों को आंदोलनों के जरिए हासिल किया. लेकिन आज हमारे देश में संविधान को खोखला करने और नए श्रम कानूनों के माध्यम से इसे उल्टा जा रहा है. समान काम के लिए समान वेतन जो कार्य स्थलों पर लैंगिक समानता सुनिश्चित कर सकता है, की गारंटी नहीं है. जटिल प्रक्रियाओं के कारण गरीबों के लिए रोजगार प्रदान करने वाली मनरेगा में महिलाओं के बड़े हिस्से के लिए काम पाना कठिन हो गया है. मिड डे मील वर्कर, आंगनबाड़ी, आशा वर्कर और अन्य सरकारी योजनाओं के तहत काम करने वाली देशभर में लाखों-करोड़ों महिलाएं, जो जनकल्याण में योगदान देती हैं, उन्हें मानदेय के रूप में मामूली राशि मिल रही है. बड़ी संख्या में सफाई कर्मचारी जो मुख्य रूप से महिलाएं हैं, को ना तो नियमित किया जाता है, ना वेतन दिया जाता है. एक्सपोर्ट गारमेंट या इलेक्ट्रिक गुड्स कंपनियों जैसे असंगठित क्षेत्र में भी महिलाओं की संख्या बहुत अधिक है जिन्हें शौचालय और क्रेश जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित रखा जाता है. सुप्रीम कोर्ट में कामकाजी महिलाओं और छात्राओं के लिए मासिक धर्म की छुट्टी के लिए हालिया याचिका का कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला है और अदालत ने इसे नीति निर्माताओं के निर्णय के लिए छोड़ दिया है.

एक तरफ अडानी और अन्य बड़े पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए देश के सारे संसाधनों को लुटाया जा रहा है, कानूनों को उनके अनुकूल बनाया या सुधारा जा रहा है और इसकी कीमत आम लोगों और खासकर हम महिलाओं से वसूली जा रही है, मार्च का महीना शुरू होते ही रसोई गैस की कीमतें एक बार फिर बढ़ा दी गई हैं. आवश्यक वस्तुओं की आसमान छूती कीमतें और महंगाई के कारण महिलाएं अभाव का बोझ और दंश झेल रही हैं, कर्ज के फंदे में फंस रही हैं और असुरक्षित और कम वेतन वाली नौकरियों में जाने को मजबूर हैं.

दूसरी तरफ भाजपा-आरएसएस द्वारा महिलाओं के मुश्किल से जीते अधिकारों पर हमला किया जा रहा है और छीना जा रहा है. यह राष्ट्रीय शर्म की बात है कि 2002 में गुजरात दंगों के दरमियान सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई बिलकीस बानो जिसकी 3 साल की बेटी समेत उसके परिवार के 14 सदस्यों की हत्या कर दी गई थी, के बलात्कारियों को जेल से रिहा कर दिया गया और माला पहना कर, मिठाई बांट कर उन्हें सम्मानित किया गया. यहां तक कि हमारे संविधान में निहित धर्म की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की भी गारंटी नहीं है. कर्नाटक में हिजाब पहनने वाली छात्राओं पर हमला, लव जिहाद के नाम पर हमले, दिल्ली के जहांगीरपुरी में अल्पसंख्यक बस्तियों पर बुलडोजर चलाना, कभी गाय तो कभी अन्य बहाने से मॉबलींचिंग, ये सभी अल्पसंख्यकों के खिलाफ अभियान का हिस्सा हैं. असम में बालविवाह के विरुद्ध अभियान के नाम पर अल्पसंख्यकों और जनजातीय समूहों, आदिवासियों पर दमन, उत्तर प्रदेश तथा देश के कई हिस्सों में अवैध अतिक्रमण से जमीन खाली करवाने के नाम पर गरीबों की बस्तियों पर बुलडोजर, उनके रोजगार के साधनों को नष्ट कर सभी धर्म समुदाय के वंचित समूहों,गरीबों और प्रवासी मजदूरों-महिलाओं के जीवन को असुरक्षित किया जा रहा है.

गायिका नेहा सिंह राठौर को पुलिस की नोटिस, बीबीसी डॉक्युमेंट्री ‘इंडियाः मोदी क्वेश्चन’ से अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले, पत्रकारों पर हमले से लेकर कलाकारों को धमकियां रोज का मामला बनता जा रहा है. सांस्कृतिक मोर्चे पर महिलाएं तथाकथित सनातन धर्म रक्षकों के पितृसत्तात्मक और जातिगत फरमानों का शिकार हो रही हैं. कभी हिंदू औरतों को पांच बेटे पैदा करने का फरमान कोई धार्मिक गुरु जारी कर रहे हैं तो कभी वैलेंटाइन डे की जगह ‘काऊ हग डे’ का आह्वान किया जा रहा है. परिसरों और कार्यस्थल पर महिलाओं की नैतिक पहरेदारी की घटनाएं बढ़ रही हैं. महिलाओं की पसंद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता गंभीर खतरे में है.

भारत में लोकतंत्र अपने नागरिकों खासकर महिलाओं की रक्षा करने में बुरी तरह विफल रहा है. धर्म, शिक्षा, कार्यस्थल या मनोरंजन किसी भी संस्था के सामाजिक स्थान महिलाओं को टारगेट करने की जगह बन गए हैं. वर्मा कमीशन की सिफारिशों के बावजूद हिंसा रुक नहीं रही. अदालत की लंबी चलती प्रक्रियाओं, फास्ट ट्रैक कोर्ट की कमी, जेंडर के प्रति संवेदनशीलता का अभाव आदि के कारण महिलाओं की सुरक्षा की चिंता अभी भी दूर की कौड़ी लगती है. सभी लोकतांत्रिक संस्थाएं, न्यायपालिका, विधायिका, मीडिया ये सभी संस्थाएं सत्ता में बैठी और समाज पर हावी भाजपा-आरएसएस के पितृसत्तात्मक फरमानों का शिकार हो गई हैं.

यह संघ का अमृत काल है, हम महिलाओं का नहीं. इसलिए हमें कारपोरेट परस्त, नफरत और विभाजन की राजनीति करने वाली ताकतों की हिंसा का विरोध करने के लिए और अपने अधिकारों के लिए महिलाओं को एकजुट होना पड़ेगा.