कला और अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है साहित्य. आदिवासी साहित्य का अर्थ ही है आदिवासी जीवन, उनके दर्शन, उनके संघर्ष और उनके समाज को परिलक्षित करने वाला साहित्य. और अगर वह महिलाओं द्वारा रचित हो तो वह निश्चित ही उनके खुद को व्यक्त करने, स्वयं को अभिव्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम बन जाता है.

किसी आदिवासी द्वारा रचित कोई रचना हो या आदिवासियों के लिए रचा गया साहित्य, दोनों एक ही बात नहीं होती है. आदिवासी साहित्य वह है जो आदिवासियों द्वारा रचित है, क्योंकि स्वानुभूति से रचित रचना अभिव्यक्ति के ज्यादा करीब होती है. वैसे, कुछ गैर आदिवासी साहित्यकारों द्वारा रचित रचनाएं भी आदिवासी दर्शन और जीवन के बहुत नजदीक हैं.

भारतीय इतिहास में आदिवासी समाज, उसकी संस्कृति की अपनी एक अलग पहचान रही है. उनकी भाषा-संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन, बोली सब कुछ शेष समाज से अलग-सा लगता है. लेकिन कमतर कहीं से नहीं है, बल्कि तुलना में श्रेष्ठ ही है.

आदिवासियों का लिखित साहित्य शायद बहुत नहीं है, लेकिन इनका गीत, नृत्य और संगीत बहुत समृद्ध है. यह सुखद है कि अनेक आदिवासी लेखिकाएं इन लोक-गीतों और कहानियों में मुखरित आदिवासी संस्कृति, जीवन और संघर्ष को साहित्य में ढाल रही हैं. उनकी कहानियों का मुख्य केंद्र प्रकृति और महिलाएं हैं. इस तरह से उनका साहित्य इकोफेमिनिज्म का एक सशक्त उदाहरण है.

यह सर्वमान्य है कि साहित्य मानव जीवन के लिए है. अपने समाज, अपने भावों को एक रूप देना, अभिव्यक्त करना ही साहित्य हो जाता है. वह मानव जीवन को रास्ता दिखाने, उसकी बेहतरी के लिए होता है. आदिवासी साहित्य भी यहां की प्रकृति, परम्परा, दर्शन, इसके जीवन संघर्ष, इनकी गरीबी, शिक्षा, इनके जीवन का दर्द, इनके विस्थापन की त्रासदी को बखूबी बयान करने में सक्षम है और यह भी सच है कि आज के दौर में अधिकतर भाषाओं में आदिवासियों पर, उनके जीवन के मुख्य मुद्दों पर लेखन हो रहा है.

वैसे देखा जाये तो आदिवासी लेखन हिंदी के अस्मितवादी विमर्शों में एकदम नया है. मगर वर्षों से हाशिये पर रखे गए आदिवासी समुदाय को आज साहित्य में बखूबी महत्व मिल रहा है. और सबसे अच्छी बात यह कि इस दिशा में आदिवासी समुदाय के लोग ही आगे आ रहे हैं. उनकी रचनाओं में उनके समाज का जीवन, उनकी आकांक्षाएं, उनके सपने आदि कहानियों व कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त हो रहे हैं.

आदिवासियों का मानना है कि आज उनका जो भी साहित्य है, वह उनके पुरखों की देन है. पुरखा साहित्य की परम्परा को मनाने वाले ये लोग प्रकृति और प्रेम के आत्मीय संबंध और गरिमा का सम्मान करते है.

पिछले दो-तीन दशकों से आदिवासी साहित्यकारों की रचना न केवल अपनी भाषा में बल्कि हिन्दी साहित्य में भी आ रही है. यहां का साहित्य अब केवल आंचलिक या क्षेत्रीय न रह कर राष्ट्रीय हो गया है. यहां के लेखकों की पहचान बृहत साहित्य जगत में बन रही है.

झारखंड के पद्मश्री रामदयाल मुंडा, हेराल्ड एस टोप्पणो, शिशिर टुडू, एनई होरो (सभी दिवंगत), रोज केरकेटा, निर्मल मिंज, सूर्य सिंह बेसरा, निर्मला पुतुल, महादेव टोप्पो, वासवी, दयामनी बारला, सुनील मिंज, वाल्टर भेंगरा, अनुज लुगुन, वंदना टेटे, जसिंकता केरकेटा आदि अनेक साहित्यकार, पत्रकार, कवि, कवयित्री हुए हैं, जो झारखंड की आवाज बने और बन रहे हैं. ये साहित्य के क्षेत्र में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं. राज्य के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक मुद्दों को उभार रहे हैं. भारत के दृश्य पटल पर ला रहे हैं.

रामदयाल मुंडा की ‘जंगल गाथा, नदी और उसके संबंधी तथा अन्य गीत’ ‘वापसी’, ‘पुनर्मिलन और अन्य गीत-कविता-संग्रह के जरिए पाठकों और आलोचकों का ध्यान आकर्षित किया था. उनकी कविताओं में प्रकृति और मनुष्य के अंतर-संबंध के साथ-साथ विकास का दर्द भी दिखता है, झारखंड के उजड़ते जंगल की व्यथा कथा और विसंगतियां भी हैं. वाल्टर भेंगरा द्वारा रचित ‘सुबह की शाम’, ‘तलाश, ‘गैंग लीडर’ और ‘कच्ची कली’ आठवें दशक के चर्चित हिन्दी उपन्यासों में एक था. पीटर एक्का की रचना ‘जंगल के गीत’ की भी बहुत चर्चा हुई, जिसके माध्यम से उन्होंने बिरसा के उलगुलन का संदेश जन-जन तक फैलाया.

आदिवासी स्त्री लेखिकाएं भी इस क्षेत्र में पीछे नहीं हैं. अब उनका दखल भी आदिवासी साहित्य के साथ-साथ हिन्दी साहित्य में दृष्टिगोचर होने लगा है। अपने देश के स्त्री साहित्य में दलित, आदिवासी और मुस्लिम स्त्रियों पर बहुत कम लिखा गया है, जबकि सही मायने में ये स्त्रियाँ समाज के दोहरे शोषण से जूझती रही हैं. तो उनके द्वारा लिखा और उनके लिए लिखा जाना बहुत मायने रखता है.

आदिवासी महिलाओं ने स्वानुभूति के आधार पर साहित्य रचना की है। इस कारण लेखन के दौरान उनको कई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है, क्योंकि उन्हें अपने तथा बाहरी दोनों समाजों के पितृसत्तामक संस्थाओं- परंपराओं से जूझना पड़ता है. हालांकि ऐसी अनेक लेखिकाओं का मानना है कि उनके जीवन दर्शन में एक समानता की, सामूहिकता की संस्कृति है. वहां कोई विभाजन या भेदभाव नहीं है. समाज में समरूपता और समानता है, जो उनके द्वारा रचित साहित्य में स्पष्ट दिखता है.

जो आदिवासी महिलाएं आज कलम के जरिये अपनी आवाज बुलंद कर आदिवासियों के बारे में लिख रही हैं, उनकी कहानियों में आदिवासियों के जीवन और संघर्ष को सहज ही देखा जा सकता है. लेकिन विडंबना यह है कि हम इनके बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं. इन रचनाकारों में प्रमुख हैं- एलिस इक्का, रोज केरकेट्टा, सुशीला समद , निर्मला पुतुल, वंदना टेटे, मंजु ज्योत्स्ना, ग्रेस कुजूर, वासवी, दयामनी बरला, सावित्री बराइक, जंसिता केरकेट्टा आदि, आज आदिवासी साहित्य को समृद्ध कर रही हैं.

झारखंड की संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल ने ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’ के जरिये हिन्दी कविता के क्षेत्र में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करायी है. अखाड़ा से जुड़ी वंदना टेटे अपनी पुस्तकों- ‘पुरखा लड़ाके’,‘किसका राज है’, ‘झारखंड एक अंतहीन समरगाथा’और ‘कवि मन जनी मन’ आदि के जरिये न केवल अपनी बात कहती हैं, बल्कि माहौल भी बना रही हैं. आदिवासियों के संघर्ष और जीवन को स्वर देती युवा कवयित्री व लेखिका जसिंता केरकेट्टा की कविताओं का अनुवाद कई भाषाओं में हो रहा है, जो यह दर्शाता है कि उनकी कविताएं सशक्त हैं, उनमें जीवन है, आदिवासी दर्शन है.