आदिवासी लेखक-लेखिकाओं के अलावा भी कई नाम हैं, जो आदिवासी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं और आदिवासी समाज के लोक गीतों और कविताओं को अपने साहित्य में सम्मिलित कर रहें है. इन सभी का मानना हैं कि गैर-आदिवासियों को भी समृद्ध आदिवासी ज्ञान और आदिवासी दर्शन के बारे में जानना चाहिए. हिन्दी साहित्यकारों की रचनाओं में भी आदिवासी जीवन एवं उनका समाज दिखता है, जो आदिवासियों के दमन एवं शोषण को दर्शाता है. हिंदी की अनेक कहानियों में आदिवासी क्षेत्र में जड़ जमा चुकी महाजनी व्यवस्था का शोषण और उनका संघर्ष परिलक्षित हुआ है.
सच तो यही है कि पूरे विश्व में आदिवासी समुदायों ने अपनी लड़ाइयां खुद लड़ी हैं, पर मुख्यधारा के साहित्यकारों ने उनके प्रति संवेदनशीलता प्रदर्शित करते हुए उनकी चिंताओं के चित्रण में अपेक्षित साथ नहीं दिया है. ऐसा लगता है कि छिटपुट चित्रण के अलावा हिंदी साहित्य में आदिवासियों के जीवन पर बहुत कुछ नहीं गढ़ा गया है.
हिंदी साहित्य में आजकल स्त्री -विमर्श और दलित विमर्श की बात जोर-शोर से हो रही है. ऐसे में आदिवासी विमर्श भले ही नया विमर्श है, लेकिन इस क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण काम हुआ है. अनेक हिंदी साहित्यकारों की रचनाओं में भी आदिवासी जीवन एवं समाज दिखता है, जो आदिवासी दमन एवं शोषण को दर्शाता है. फणीश्वर नाथ रेणु के ‘मैला आँचल’ में संथालों को स्वत्व और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते देखा जा सकता है. जुल्म का शिकार होने के बावजूद उनके मांदर एवं डिग्गे की आवाज का बंद नहीं होना उनके जीवन के जुझारूपन को दर्शाता है.
वृन्दावन लाल वर्मा ने अपने ऐतिहासिक उपन्यास ‘कचनार’ (1952) में गोंड स्त्री ‘कचनार’ के सतत् संघर्ष को चित्रित किया है. आगे चल कर महाश्वेता देवी के उपन्यासों और कहानियों में आदिवासी समाज की त्रासदी और उनके संघर्ष का चित्रण, उनके साथ होते आ रहे अन्याय की भरपूर और सशक्त अभिव्यक्ति हुई है. अपने परवर्ती उपन्यासों में भी महाश्वेता देवी ने कई उपन्यासों की रचना की और आदिवासियों के विद्रोह गाथाओं के माध्यम से विरसा मुंडा जैसे महानायक का परिचय हम सभी से करवाया.
रमणिका गुप्ता के उपन्यास ‘सीता मौसी’ का नाम भी इस श्रेणी में लिया जा सकता है. प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार संजीव जी की रचना, ’धार’, ‘सावधान नीचे आग है’, ‘पाँव तले की दूब’ आदि में भी विस्थापन का दर्द झेलते आदिवासियों की चर्चा के साथ-साथ सरकारों और कॉरपोरेट कंपनियों द्वारा उनके मानव अधिकारों के हनन की चर्चा है. उन्होंने कोयलांचल के आदिवासी समुदाय पर भी बहुत कुछ लिखा है. साथ ही ‘जंगल जहां से शुरू होता है’ में चंपारण के थारू जनजातियों के ऊपर होने वाले शोषण तथा उनके संघर्ष के वृतांत हैं.
मनमोहन पाठक रचित ‘गगन घटा गहरानी’ में आदिवासियों के निश्छलता को देखा जा सकता है. मैत्रेयी पुष्पा ने ‘अल्मा कबूतरी’ उपन्यास के माध्यम से आदिवासी स्त्री की जीवन शैली का सभ्य समाज द्वारा किये जाने वाले शोषण को उकेरा है, साथ ही घृणित राजनीतिक सत्ता पर भी करारा व्यंग्य किया है. कदम बाई, भूरी एवं अल्मा के चरित्र के द्वारा स्त्री की सहनशक्ति, बुद्धिमत्ता एवं विवेकशीलता का भी परिचय दिया है जो आदिवासी समाज की स्त्रियों को अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए प्रेरित करती है.
वहीं विनोद कुमार ने अपने उपन्यास ‘समर शेष है’ में झारखंड के लोगों पर महाजनी व्यवस्था के प्रकोप से शोषित आदिवासियों की कथा बड़े ही तथ्यात्मक तरीके से कही है. यहाँ के भोले भले लोगों की सरलता का इस्तेमाल ठेकेदार तथा महाजन कैसे करते हैं, यह उनके उपन्यास में बखूबी परिलक्षित होती है. रणेंन्द्र कुमार का ‘ग्लोबल गाँव का देवता’ और ‘गायब होता देश’ उपन्यासों में आदिवासी स्त्री के संघर्षों एवं उसके अनुभवों को स्वतंत्र और स्पष्ट तरीके से उद्धृत किया गया है. पंकज मित्र की कहानियों में आदिवासी जीवन की झलक, झारखंडी संस्कृति की जीवन से जुड़ी परम्पराएं बिखरी पड़ी हैं. कैलाश चंद्र चैहान रचित ‘भँवर’ में भी आदिवासी समाज का दर्द दिखता है.
अश्विनी पंकज ने अपने साहित्य के माध्यम से आदिवासी संस्कृति को समेटने और संग्रहीत करने का काम गंभीरता से किया है. ‘माटी माटी अरकाटी’ उनका चर्चित उपन्यास है जो गिरमिटियाओं की भूली कहानी को सामने लाने का काम करता है. साहित्यकार और समालोचक वीर भारत तलवार की किताब ‘झारखंड के आदिवासियों के बीच’ झारखंड के आदिवासियों के जीवन-संस्कृति को देखने का एक झरोखा प्रदान करती है.