कल अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस था. हर वर्ष 29 अप्रैल को यह दिवस विश्व स्तर पर मनाया जाता हैं. और इस अवसर पर पूरे विश्व में तरह-तरह के आयोजन हुए. लेकिन हमारे समाज में तो कहा जाता है कि चलना ही नृत्य और बोलना ही गीत है. इसलिए नृत्य दिवस मनाने की हमें अलग से जरूरत नही पड़तीं. जीवन के हर अवसर, खुशी, उमंग, पर्व, पारिवारिक सामाजिक आयोजन में हमारे पांव खुद ब खुद थिरक उठते हैं.
हमारे समाज में हर अवसर के लिए गीत और नृत्य हैं और इसके लिए विशेष प्रशिक्षण, नृत्य-संगीत स्कूल की भी जरूरत नहीं. यह बच्चे बच्चियां-उसी तरह सीख लेते हैं, जैसे चलना और बोलना. नित्य पूरे विश्व में सभी लोग अपनी-अपनी तरह से करते हैं. लेकिन आदिवासी नृत्यों के समानांतर भारतीय शास्त्रीय नृत्य करना सबों के लिए आसान नहीं. जानकारों के अनुसार भारतीय शास्त्रीय नृत्य की 8 प्रमुख शैलियां हैं- कत्थक, भरतनाट्यम, कत्थकली, मणिपुरी, ओडिसी, कुचीपुड़ी, सत्रीया एवं मोहिनीअट्टम. इन सभी नृत्य को सीखते हैं तभी जाकर कर पाते हैं. सभी नृत्य अलग-अलग समाजों के प्रतिनिधि नृत्य हैं और इन्हें करना सभी के लिए आसान नहीं. इसके लिए बहुत अधिक परिश्रम और साधना की जरूरत है. और कुछ ही इन नृत्यांें में पारंगत हो पाते हैं.
इसकी तुलना में आदिवासी समाज का नित्य उनके जीवन का मूल्य तत्व है और उनके जीवन के साथ चलता है. यह एक तरह से उनके जीवन में घुला मिला है. उनके भी नाच के अलग-अलग प्रकार हैं. जैसे नागपुरी नृत्य, मदानी झूमर, जनानी झूमर, डमकच, फगुआ नाच, भगतिया नाच, सोहराई, दासाई, जतरा, मागे, सरायकेला छाउ, खड़िया, मुंडारी, संथाली. और आदिवासी समाज के लिए भले ही यह आसान और सहज हो, गैर आदिवासी समाज के लिए ये नृत्य बहुत आसान भी नहीं. आदिवासी जीवन इन नृत्यों-गीतों में रचा बसा है और उनके कठिन जीवन को सरस बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. आदिवासी अपने जीवन मे इन सभी नृत्य व ढोल-मांदर, नगाड़े से मधुर उल्लास उत्पन्न करते है. कठिन परिश्रम से भरपूर जीवन में जिस तरह आदिवासी प्रकृति से लगाव रखते हैं, उसी तरह नृत्य भी उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है.
रामदयाल मुंडा ने कहा था ‘जे नाची से बाची’ इसका अर्थ यह है कि जीवन में कठिन परिश्रम, खेती बारी कर आदिवासी नदी नाला झरनों को जिस तरह से बचा कर रखे हैं, उसी तरह वह समय-समय पर नृत्य भी करना जरूरी मानते हैं. इसलिए कठिन श्रम के बाद नृत्य और गीत उनके जीवन का अनिवार्य हिस्सा है. फर्क यह कि जहां गैर आदिवासी समाज में नृत्य और गीत एक उत्कृष्ट कला है, वहीं आदिवासी समाज के लिए वह जीवन का हिस्सा. एक फर्क यह भी कि जैसे आदिवासी जीवन सामूहिकता पर टिका है, वैसे ही उनका नृत्य भी सामूहिक ही होता है. वहां कलाकार और दर्शक अलग-अलग नहीं होते, सभी छोटे, बड़े, बूढ़,े युवा कलाकार बन जाते हैं नृत्य करते समय.
अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस यह याद दिलाता है कि हमें अपने जीवन में खुश व तंदुरुस्त रहने के लिए और जीवन को रसमय बनाये रखने के लिए समय-समय पर नित्य कर लेना चाहिए और आने वाली पीढ़ी को भी इनका महत्व समझाना चाहिए कि ‘जे नाची, से बांची.