शादी एक महत्वपूर्ण सामाजिक गतिविधि है और यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही हैं. हाल में हमारे यहां उराँव समुदाय के दो जोड़ियों की शादी रीति, रिवाज व परम्परा के साथ सम्पन्न हुआ. यदि आपकी रुचि हो तो इसे पढ़ें और आदिवासी समाज के विवाह के वैशिष्ट को समझें. हमारे यहां देहज प्रथा नहीं. विवाह निजी मामला नहीं. समाजिक परिघटना है. और पूरा गांव-परिवार इसमें योगदान करता है. शादी से पहले सभी रिश्तेदारों को कार्ड व अरवा चावल के माध्यम से निमंत्रण दिया जाता हैं. उसके बाद बाजार हाट जाकर परिवार वाले सारा सामान खरीदते हैं, शादी की तैयारियां धूम धाम से करते हैं. पहले शादियां बेहद सादगी से होती हैं. अब उसमें थोड़ा बहुत आडंबर भी होता है. हर विधि विधान का लोग आनंद तो लेते ही हैं और जमकर नाचते हैं.

मड़वा

मड़वा शादी का पहली विधान है जिसमें बांस- पत्तों से मड़वा गाडा जाता है. बांस का चार खम्बा के माध्यम से मड़वा बनाया जाता है, जिसकी सजावट के लिए पत्तों का इस्तेमाल किया जाता है. मड़वा का सजावट होने के बाद लड़का पार्टी साइड से डाली तोड़ने आते है. उसके बाद गांव के पाहन व पिता द्वारा मडवा पूजा किया जाता है. इसमें दो मुर्गी लगता है. पहले मुर्गी को अरवा चावल खिलाया जाता है. आदिवासी समाज का मानना है कि मुर्गी अगर अरवा चावल खाएगी, तभी पूजा सफल होगा. चावल खाने के बाद मुर्गी की बलि दी जाती है. उस बलि के खून को मड़वा के चारों ओर बांस में लगाया जाता है साथ ही अरवा चावल का आटा का लेप. साथ ही ढोल मांदर डंका सभी की पूजा किया जाता है.

पूजा संपन्न होने के बाद लड़की के दिन भाभी मड़वा उठाती है. तीनों एक ही रंग का साड़ी पहनकर मड़वा के तीन चक्कर लगाकर तीनों खड़ी हो जाती हैं. तीनों को हड़िया पिलाया जाता है. उसके बाद ‘मडवा उठाया’ शुरू करते हैं. तीनों भाभी अलग-अलग मडवा उठाते हैं. एक धान का घड़ा और सिंदूर को पाहन द्वारा आंचल में बांधती हैं, दूसरी फूल का, तीसरी बांस का टोकरी उठाकर तीन चक्कर लगाकर हाथ में हाथ मिला कर ढोल मांदर नगाड़ा के साथ नाचती हंैं. उसके साथ गांव वाले भी नाच उठते हैं. इस तरह मडवा उठाया जाता है. दूसरे दिन चुमावन किया जाता है.

चुमावन

चुमावन के दिन सभी को भोजन खिलाया जाता है. जितने भी लोगों को निमंत्रण दिया जाता है, सभी आते हैं. वह लड़की को अपनी मर्जी से जो भी सामान देना रहता है व पैसा दे देते हैं. उसके बाद नाश्ता भोजन डांस करते हैं. शादी का आनंद उठाते हैं. आदिवासी समाज में दहेज प्रथा नहीं है. इस चीज का मुझे गर्व है. लड़की को जो भी सामान प्यार से दिया जाता है, उसे वह अपने साथ ले जाती है. उसके बाद लड़की की विदाई होती है. उस समय धान को लेकर लड़की को मां के आगे रख कर धान को लड़की आगे से उठा कर मां के आँचल में फंेकती हैं और लड़की का छोटा भाई पीछे खड़ा होता हैं. यह समय दुख का होता है, जहां पर लड़की को धान फेंकती देख सभी रो पड़़ते हैं. उस समय सबको लगता है कि हां! बेटी दूर हो रही है. उसकी विदाई में मां बाबा भाई सभी रो पड़ते हैं. उसके बाद लड़की का बड़ा भाई उठा कर गाड़ी तक ले जाता है. इस तरह विवाह संपन्न हो जाता है.

वैसे, विवाह संपन्न होने के बाद अगले दिन लड़की के परिजन भी बारात की शक्ल में लड़के के घर जाते हैं. वहां भी खाना, पीना, नाचना आदि होता है और फिर सभी लड़की को लेकर वापस आ जाते हैं. आने जाने का यह सिलसिला फिर चलता ही रहता है. एक बात और कि जब लड़की का विवाह तय हो जाता है तो लड़का वाले लड़की और लड़की के घर वालों के कपड़े लत्ते के लिए कुछ धनराशि देते हैं. लड़की वही कपड़े आभूषण आदि पहनती है. ऐसा नहीं होता कि विवाह के नाम पर सारा बोझ लड़की के घर वालों के कंधे पर ही डाल दिया जाये. एक भोज लड़की के घर पर होता है तो एक भोज लड़के वालों के घर पर भी.