इस कहानी संग्रह ‘निम्मो बनाम निम्मो बी’ की कहानियों के सभी किरदार हमारे आसपास के लगते हैं. ऐसे या इनसे मिलते जुलते लोग हमारे परिवार, मुहल्ले या जान-पहचान के हो सकते हैं. संवेदनशील मन और सक्षम कलम हो, तो कोई भी उन पर कहानी लिख सकता है. किरण जी ने भी बस यही किया है. उनमें कल्पना के थोड़े रंग भरे होंगे, मगर कोई कहानी काल्पनिक नहीं लगती. चूंकि लेखिका समाजकर्मी, खास कर नारीवादी आंदोलन से जुड़ी रही हैं, तो संग्रह की अमूमन सभी 12 कहानियों में समाज में सदियों से स्त्री को दोयम मानने की धारणा, स्त्री विरोधी मान्यताओं पर टिकी परम्पराओं का उल्लेख नजर आता है. इनको पढ़ते हुए आप महसूस का सकते हैं कि इन्हीं कारणों से स्त्री का स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसित नहीं हो पाता और वह अपने लिए कोई निर्णय भी नहीं ले पाती! इस सबका महज उल्लेख नहीं, कहानी की केंद्रीय स्त्री पात्र उनको नकारने और उन मान्यताओं से खुद को मुक्त करने का प्रयास करती हुई भी नजर आती हैं. कई बार इसमें कोई और भी उसे प्रेरित करता या करती है. इन कहानियों में वही सब है, जो हम देखते और महसूस करते हैं. पति के बदल जाने का इंतजार, अंदर से टूट जाने के बाद भी रिश्ते से बाहर नहीं निकल पाने की टीस, सिर्फ ‘सुहागन’ कहलाने के लिए मरनासन्न पति को जिलाये रखने की जद्दोजहद आदि आदि.

संग्रह की पहली कहानी ‘निम्मो बनाम निम्मो बी’ के अलावा शायद ही किसी कहानी में राजनीति, खास कर धर्मोन्माद के मौजूदा दौर की राजनीति की झलक है. मगर यह कहानी कठोर सच्चाई पर आधारित लगी. इसमें भी किसी एक समुदाय को अच्छा या बुरा बताने की मंशा नहीं दिखती. बस, सांप्रदायिकता की मार कैसे स्त्रियाँ तन- मन पर झेलती हैं, कैसे उनके पारिवारिक रिश्ते उनसे प्रभावित होते हैं, इसका मार्मिक चित्रण है. कैसे निम्मो का पति एक भीड़ की हिंसा में मारा जाता है. फिर कैसे एक सहृदय मुसलिम उसे सहारा देता है और वह ‘निम्मो बी’ बन जाती है- कैसे उसके परिजन उससे दूर हो जाते हैं, वह पूरा दौर किसी को झकझोरने के लिए काफी है.

इन कहानियों में ‘तिरिया चरित्तर’ की धारणा या कहावत को स्त्री के चरित्र को संदिग्ध मानने, उसकी भावनाओं का मजाक उड़ाने के हथियार पर चोट है, जिसका उत्स कहीं न कहीं ‘मनुस्मृति’ में है, जिसमें कहा गया है- ‘महिलाएं केवल दासी हो सकती हैं. बचपन में पिता, यौवन काल में पति और पति की मृत्यु हो जाये तो उसे पुत्र के अधीन रहना चाहिए.’ आज तक हमारा समाज इस मूर्खतापूर्ण और स्त्री विरोधी धारणा और मानासिकता से पूरी तरह उबर नहीं सका है. यह बात संकलन की कहानियों में बार बार रेखांकित होती है. खुद स्त्रियों का ऐसा अनुकूलन हुआ है कि वह भी अपने को दोयम मानती है. वैसे सच यह है कि सभी धर्मों में स्त्री के प्रति लगभग ऐसी ही धारणा है! तभी तो पूरी दुनिया में स्त्री की स्थिति भी कमोबेश एक जैसी है.

संकलन की दूसरी कहानी ‘सुलक्षणी बाइ चांस’ बताती है कि कैसे किसी स्त्री को सुलक्षणी या कुलक्षणी कह दिया जाता है. ऐसे कारणों से, जिसमें उसका कोई दोष नहीं होता. ‘साम्राज्य’ बताती है कि जिस परिवार के हितों की चिंता स्त्री अपना समझ कर करती है, उसे परिवार ही एहसास दिलाता है कि इस ‘साम्राज्य’ पर तुम्ह्ारा कोई हक नहीं है, तुम मात्र इसकी केयरटेकर हो. ‘शायद इस बार’ एक स्त्री के अपने पति के अच्छे व्यवहार के इंतजार की कहानी है, जो कभी पूरी नहीं होती. ‘वह अपना-सा’ के बच्चे के साथ एक स्त्री के कोमल और सहज रिश्ते की कहानी है. ‘निर्णय’ कहानी में अंततः नायिका पति और परिवार की एक बेटे की चाहत में बार बार गर्भ धारण के दुश्चक्र से बाहर निकलने का फैसला करती है. ‘अम्मा जी का डर’ एक स्त्री क्यों ‘सुहागन’ बनी रहना चाहती है, उसे बखूबी बयां करती है. कानून कुछ कहे, व्यवहार में पैत्रिक संपत्ति पर स्त्री का अधिकार नहीं है, ‘बाबा की थाती’ यह सच बताती है.

‘फ्रील वाले फ्रॉक’ माँ-बेटे के बीच के रिश्ते की कहानी है., ‘जिंदगी रुकती नहीं’, ‘यादें जो भूलती नहीं’, ‘तुम्हें जो अच्छा लगे’ जैसी कहानियों के शीर्षक से ही अंदाजा लग जाता है, कि उनमें क्या संदेश होगा. अन्य कहानियों के बारे में इतना ही कि सभी समाज और परिवार में स्त्री की स्थिति और स्त्री के मन की झलक देती हैं.

कुल मिला कर इस संकलन की कहानियां स्त्री मन के अंदर झाँकने का एक और मौका देती हैं. सभी पठनीय हैं और कुछ सोचने को उकसाती हैं. बेशक ये सभी मध्यम वर्गीय परिवारों की कहानियां हैं. यह सवाभाविक भी है. लेखक- लेखिका जिस समाज से आता या आती है, वही उसके लेखन में बेहतर ढंग से मूर्त होता है. मेरी गुजारिश- इन कहानियों को पढ़ें, अच्छा लगेगा. एक पाठक के रूप में मुझे किरण जी की नयी कहानियों का इंतजार रहेगा.