वर्ष 1964 में जेपी के तीन लेख छपे. पहला (16 अप्रैल) - ‘कश्मीर की कहानी’. दूसरा (11 मई) -‘पुनर्विचार की आवश्यकता’ और तीसरा (22 अगस्त)- ‘तीन मोर्चों की लड़ाई.’
उन तीनों लेखों का सेंट्रल आइडिया (थीम) या वन लाइन स्टोरी थी - ‘कश्मीर देश की धर्मनिरपेक्षता का आदर्श है.’
उन्होंने लिखा - “कश्मीर हमारे लिए एक बहुमूल्य वस्तु इसलिए है कि हम उसे अपनी ‘धर्मनिरपेक्षता’ के आदर्श के रूप में खड़ा रखना चाहते हैं. मुझे आश्चर्य है कि हमारे धर्मनिरपेक्ष आदर्श के प्रवक्ता वर्तमान परिस्थिति में निहित व्यंग्य को समझते हैं या नहीं. वहीं कश्मीर, जो भारतीय धर्मनिरपेक्षता का उदाहरण माना जाता है, हिंदू संप्रदायवाद के एक घिनौने उभार का कारण बना है. इस प्रक्रिया को समझना आसान नहीं है, क्योंकि यह ‘राष्ट्रवाद’ की आड़ में हो रहा है.
“भारत एक हिंदू बहुल देश है. इस कारण, जैसा कि कुछ पर्यवेक्षकों ने कहा है, हिंदू संप्रदायवाद के लिए भारतीय राष्ट्रवाद की नकाब पहनकर दौड़ लगाना कठिन नहीं है. इसलिए यह और भी आवश्यक है कि जो लोग सचमुच धर्मनिरपेक्ष और समन्वय मूलक राष्ट्रवाद में विश्वास रखते हैं, उन्हें सतर्क रहना चाहिए.” “कश्मीर भारतीय धर्मनिरपेक्षता का आदर्श है, यह कहने का क्या मतलब है?”
“मैं मानता हूं, इसका मतलब यह है कि भारत के लोगों ने अपने असांप्रदायिक दृष्टिकोण का ऐसा सबूत पेश किया है कि कश्मीर के मुसलमानों ने, वहां बहुसंख्यक होते हुए भी, पाकिस्तान के साथ - जो एक मुस्लिम-बहुल देश है, लेकिन इस्लामिक राज्य है - रहने के बजाय, भारत के साथ, जो हिंदू-बहुल देश तो है, लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है, स्वतंत्रतापूर्वक रहने का निश्चय किया है.”
“मान लिया कि हम कश्मीर के मुसलमानों को जबरदस्ती भारत में रखते हैं, तो क्या वह हमारी धर्मनिरपेक्षता का उदाहरण होगा?”
“यह सवाल स्वयं अपनी असंभवता को प्रकट करता है. और फिर, यह मनोवृत्ति आज इतनी व्यापक हो गई है कि अपने राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष आधार की रक्षा करने के लिए हम भारतीय संघ में कश्मीर को अवश्य रखेंगे और जरूरत पड़ने पर जबरदस्ती रखेंगे! इसलिए मैं पूरी गंभीरता के साथ प्रधानमंत्री से, कांग्रेस के अध्यक्ष से तथा कांग्रेस के दूसरे नेताओं से यह निवेदन करना चाहूंगा कि वे जरा अपनी पार्टी के अंदर चल रही ‘कैंसर’ की तरह घातक प्रक्रिया पर गौर करें.
जैसी बातें चल रही हैं उनसे बहुत शीघ्र ऐसी स्थिति हो जाएगी कि कांग्रेस और जनसंघ के बीच कम से कम इस मामले में चुनाव करने के लिए कुछ नहीं रह जाएगा. छिछले और डरपोक कांग्रेस-जन यह महसूस कर रहे हैं कि जनसंघ उनसे बाजी मार ले जा रहा है. लेकिन अधिकांश जनता का दिमाग दुरुस्त है, और अगर पंडित जवाहरलाल नेहरू (जैसा कि लोगों ने उन्हें हमेशा जाना है) एक स्पष्ट और साहसपूर्ण नेतृत्व दें, तो सारे लोग उनके साथ हो जाएंगे. और इस प्रकार वे सारे कमजोर दिलवाले कांग्रेस जन भी, जो संप्रदायवाद की लहरों पर चढ़कर विजय की जयमाला पहनना चाहते हैं, उनके साथ हो जाएंगे.
अगर ऐसी कोई बात नहीं हुई तो?
तब तो मुझे भय है कि हमारे राष्ट्र का जो धर्मनिरपेक्ष आधार है उसको मर्मांतक क्षति पहुंच कर रहेगी.”
जेपी के तीन लेखों ने भारत सहित पाकिस्तान में तहलका मचा दिया. तभी सितंबर में जेपी पाकिस्तान-यात्रा पर गये. उन्होंने पाकिस्तान से लौटकर 12 सितंबर को (पालम हवाई अड्डे पर उतर कर) एक बयान दिया, जिसे भारत के कई अखबारों ने ‘पाकिस्तान-यात्रा का अनुभव’ शीर्षक से छापा और उसी दिन कराची से ‘प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया’ के कार्यालय संवाददाता ने समाचार भेजा - “पाकिस्तान की जनता पर जेपी की यात्रा का असर.“ वह भी भारत के कुछ अखबारों में छपा.
15 सितंबर, 1964 को दिल्ली के लाजपत भवन में एक सार्वजनिक सभा हुई. उसमें जेपी ने भारत पाकिस्तान संबंध पर भाषण दिया. पाकिस्तान से लौटने के बाद यह उनकी पहली सार्वजनिक सभा थी. उस सभा में दिल्ली के चुने हुए बुद्धिवादी और शिक्षित वर्ग के लोग एकत्र हुए. लेकिन उस सभा में एक कोने में कुछ व्यक्ति शुरू से शोर मचाने लगे. लेकिन जब जेपी ने बोलना शुरू किया, तो शोर थमा और जेपी का भाषण शांतिपूर्वक लगभग एक घंटे तक चला.
भारत के अंग्रेजी अखबारों में जेपी के भाषण की संक्षिप्त रिपोर्ट छपी. उसमें भाषण के बाद पूछे गये कुछ सवाल और जेपी के जवाब छापे गये. अंतिम सवाल था - “अगर कश्मीर विवाद का हल नहीं होगा, तो आगे क्या होगा?”
जेपी ने स्पष्ट उत्तर दिया - “अगर यह विवाद हल नहीं होगा, तो दोनों देशों में गृह-युद्ध होगा या भारी अशांति मचेगी.”
“इसका माने?”
“साम्प्रदायिक अशांति.”
“तब आबादी का तबादला क्यों नहीं कर लिया जाए?”
इस पर जेपी ने तत्काल एक वाक्य में जवाब दिया- “आबादी के तबादले से भारतीय राज्य की धर्म-निरपेक्षता ही समाप्त हो जायेगी.”
(‘क्रन्तिशोधक लोकनायक के चार अध्याय’ किताब का अंश)