कश्मीर की कहानी: डेट लाइन 16 अप्रैल, 1964, पटना

जेपी के मित्र शेख अब्दुल्ला कारागार की 11 साल लंबी सजा से हाल में मुक्त हुए थे। शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर के सवाल पर अपने विचारों को प्रकट करना शुरू ही किया था कि उनके विचारों पर जिम्मेदार लोगों के द्वारा नाराजगी प्रकट की जाने लगी थी। तभी जेपी का अंग्रेजी में लिखा आलेख “कश्मीर की कहानी” (1964, 16 अप्रैल) छपा। इस लेख ने देशभर में एक तहलका-सा मचा दिया। राजनीतिक क्षेत्रों में उसकी कठोरतम आलोचनाएं हुई। अनेक अखबारों ने उसके विरुद्ध टिप्पणियां लिखीं। जेपी की देशभक्ति पर संदेह प्रकट किया गया। उन्हें धमकियां दी गयीं। यह सब इसलिए कि जेपी ने सच्चाई का पक्ष लिया - संकीर्ण राष्ट्रवाद से ऊपर उठकर भारत के वृहत्तर हितों को ध्यान में रखते हुए अपने विचार प्रकट किये।,

“कश्मीर की कहानी, उलझे हुए उद्देश्यों, तरीकों और ऐसे आदर्शों की कहानी है, जिनके पीछे सच्चाई नहीं थी। आरंभ से ही कश्मीर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की चिंता का विषय रहा है। फिर भी जब शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्रित्व पद से हटाए गये और बंदी बनाए गये, तो इस घटना को श्री नेहरू ने ठीक उसी प्रकार जाना जैसे भारत के और किसी नागरिक ने जाना। कश्मीर के मामले को जिस अविश्वसनीय ढंग से अंजाम दिया गया, यह घटना उसकी केवल एक मिसाल है। अभी शेख अब्दुल्ला के वक्तव्य को लेकर जो शोर मचाया जा रहा है, उससे यह शंका होती है कि कहीं पुरानी कहानी फिर न दोहराई जाए।

“11 साल तक टालमटोल के बाद आखिर शेख साहब रिहा किए गये, परंतु फिर ऐसा लगता है कि इतने विलंब से भी जो निर्णय किया गया उसके पीछे कोई सुचिंतित नीति नहीं है। शेख साहब के वक्तव्यों पर आश्चर्य और दुख प्रकट किया जा रहा है। अगर संबंधित सज्जनों ने, जानबूझकर शुतुरमुर्ग की तरह बालू में सर नहीं छुपाया होता, तो वे अपने को इन भावुकतापूर्ण प्रलापों से बचा सकते थे।

“शेख अब्दुल्ला ने ऐसा कुछ नहीं कहा है जिसकी अपेक्षा नहीं की गई थी। सौभाग्य से, सत्ताधारी दल में अगर किसी ने समझदारी की बात कही है तो वह स्वयं प्रधानमंत्री ने कही है।”

“आखिर, शेख अब्दुल्ला के वक्तव्यों का सार क्या है?”

“यही कि कश्मीर के भविष्य का निर्णय कश्मीर की जनता करेगी और यह निर्णय इस प्रकार होगा जिससे भारत और पाकिस्तान के बीच का विवाद मैत्रीपूर्ण ढंग से समाप्त हो। अगर कुछ बुद्धि से काम लिया गया होता, तो यह बात समझ में आ सकती थी कि कश्मीर-नेता द्वारा अपनाई गई स्पष्ट और सिद्धांतपूर्ण भूमिका ने भारत के लिए एक ऐसा अवसर उपस्थित किया, जिसका इस्तेमाल सभी संबंधित पक्षों के हितार्थ किया जा सकता था। लेकिन वास्तव में हो क्या रहा है? केवल सुग्गे की तरह कुछ ऐसे फतवों की रट लगाई जा रही है जो निष्पक्ष क्षेत्रों में विश्वास नहीं उत्पन्न उत्पन्न करते हैं।”

“जैसे?”

“जैसे, एक फतवा यह है कि भारत के साथ कश्मीर का विलय अंतिम और अटल है। शेख ने इस पर प्रश्न चिन्ह लगाया है। और अब निष्पक्ष कानून के ज्ञाता ही इस पर निर्णय दे सकते हैं। लेकिन एक महत्व की बात जो ध्यान में रखनी है, वह यह है कि कश्मीर जैसा एक मानवीय सवाल केवल कानूनी दलीलों से तय नहीं किया जा सकता है। वास्तव में ऐसा समझकर ही प्रधानमंत्री ने जनता की राय लेने का वादा पहले किया था।

“आपकी नजर में और भी फतवे हैं?”

“हां, इस संदर्भ में और भी दो फतवे दिये जाते हैं। (क) एक तो यह कि कश्मीर की जनता तीन आम चुनाव में अपनी राय प्रकट कर चुकी है। (ख) दूसरा कि अगर कश्मीर को अपना मत प्रकट करने दिया गया, तो भारतीय राष्ट्र का अंत शुरू हो जाएगा।

“लेकिन मेरी दृष्टि में, ये नारे-फतवे निराधार हैं। शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद कश्मीर में जो चुनाव हुए वे न तो निष्पक्ष और न स्वतंत्र कहे जा सकते हैं। अगर इस बात को गलत सिद्ध करना है, तो यह केवल सरकारी बयानों से नहीं, एक निष्पक्ष जांच से किया जा सकता था। दिल्ली के शासक समझते हैं कि स्वगत-सुझाव ( ंनजव-ेनहहमेजपवद - ऑटो सजेशन) से वे अपने मन के लायक किसी भी बात को सिद्ध कर सकते हैं। देशभक्ति तथा दूसरे गुणों का अभाव मुझ में हो सकता है लेकिन मुझे हमेशा यह लगता रहा है कि कश्मीर की जनता भारत के साथ निर्णय मिलने का निर्णय कर चुकी है, यह कहना झूठ है। वह ऐसा निर्णय कर सकती है, लेकिन अभी तक किया नहीं है।

“चुनाव सही ढंग से हुए हैं या नहीं इस प्रश्न को अलग रखते हुए यह कहा जा सकता है कि जम्मू और कश्मीर राज्य का भविष्य क्या होगा, यह चुनाव का प्रश्न कभी नहीं रहा है। अगर इसका और प्रमाण चाहिए तो वह शेख अब्दुल्ला की जोरदार ढंग से प्रकट की गई राय में उपस्थित है, क्योंकि यह तो कम से कम कहा ही जा सकता है कि शेख अब्दुल्ला किसी भी अन्य कश्मीरी नेता की तरह वहां की जनता के प्रतिनिधि हैं। अंततः, अगर हमें जनता के निर्णय पर इतना विश्वास है ही, तो फिर क्यों हम उसको वही निर्णय दोहराने का अवसर देने के विरुद्ध हैं?”

“इसका जवाब यह दिया जाता है कि ऐसा करने से देश का विघटन शुरू हो जाएगा।”

“इससे अधिक बेहुदी बात इस विवाद के सिलसिले में कम ही कही गई होगी। इस तर्क के पीछे यह मान्यता है कि भारत के राज्य किसी सामान्य राष्ट्रीयता की भावना से बंधे हुए नहीं हैं, बल्कि जबरदस्ती एक साथ बांध कर रखे गये हैं। यह मान्यता भारतीय राष्ट्र का मखौल करनेवाली और भारतीय राज्य को जालिम सिद्ध करने वाली है।”

“अगर शेख अब्दुल्ला ठीक से पेश नहीं आते, तो कानून अपनी राह तो लेगा?”

“कानून तो 11 वर्षों तक अपनी राह ले चुका है और तब भी यह मामला अनिर्णीत पड़ा है। भविष्य में भी कानून इससे अधिक कुछ हासिल करने वाला नहीं है। यह अद्भुत बात है कि किस तरह कल के स्वातंत्र्य-वीर इस आसानी से साम्राज्यवादियों की भाषा बोलने लगे हैं!

“आखिरी जो नारा इस शोरगुल के बीच लगाया जा रहा है, वह यह है कि कश्मीर का कोई सवाल कभी था, तो वह अब हमेशा के लिए हल हो चुका है। स्वगत-सुझाव का यह सब से निकृष्ट उदाहरण है। कश्मीर भारत का अंग है और यह इतिहास का एक तथ्य है, ऐसा कहा जाता है। इस प्रकार के नारे लगानेवाले यह भूल जाते हैं कि जम्मू और कश्मीर का आधे से कुछ कम भाग पाकिस्तान के कब्जे में है। क्या उसे भी एक निश्चित तथ्य के रूप में मान लिया गया है? अगर ‘हां‘ तो कब और कहां माना गया है? अगर नहीं, तो कश्मीर का मामला तय कैसे हो चुका है, सिवा इसके कि कुछ लोगों ने अपने निजी खयालों में यह मान रखा है कि जो हमारे कब्जे में हैं वह हमारा रहेगा और जो उनके पास है वह उनका रहेगा?

“दूसरी बात यह है कि यह समस्या सुरक्षा परिषद में अभी विचाराधीन है और संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षक अभी कश्मीर में बैठे हुए हैं। तीसरे, शेख अब्दुल्ला की ऊंचाई के नेता स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि इस मामले को तय करना अभी बाकी है।

“इसलिए इस देश के एक विनम्र सेवक के नाते मैं निवेदन करता हूं कि अपनी कल्पना के स्वर्ण- संसार में पनाह लेने के बदले हम जरा हिम्मत के साथ तथ्यों का मुकाबला करें और जिन आदर्शों और मौलिक सिद्धांतों से हमारा स्वाधीनता आंदोलन अभिप्रेरित हुआ था, उनके आधार पर इस मामले को तय करें।”

“यानी आपका कहना यह है कि शेख अब्दुल्ला ने ऐसा कुछ नहीं कहा, जो हल का दरवाजा बंद करता हो?”

“उन्होंने जो कुछ कहा, उसके पीछे तर्कपूर्ण एवं मैत्रीपूर्ण यह विचार है कि जम्मू और कश्मीर राज्य का जो पुराना स्वरूप है, उसकी एकता और अखंडता को कायम रखा जाए और इस प्रकार से फिर एक बने हुए राज्य की जनता का मत, चाहे जिस पद्धति पर सभी पक्ष सहमत हों, लिया जाए। उन्होंने कहा है कि जनमत संग्रह ही जनता के मत निर्धारण का एकमात्र रास्ता नहीं है। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का रास्ता भी उन्होंने सुझाया है। यह कोई ऐसी बात नहीं है जो भारत, पाकिस्तान और कश्मीर की जनता के लिए एक समान भूमिका प्रस्तुत न करे।”

“यह उत्साहवर्धक बात है कि प्रधानमंत्री नेहरू ने वैदेशिक मामलों के विवाद के उत्तर में भारत-पाकिस्तान की मैत्री में साहसपूर्वक अपना विश्वास प्रकट किया। यहां तक कि किसी प्रकार का वैधानिक संबंध उनके बीच हो, ऐसा मंतव्य भी प्रकट किया। दोनों तरफ से गलतियां हुई हैं यह मानने की उदारता भी उन्होंने दिखाई।”

“हाल की घटनाओं ने यह सिद्ध किया है कि भारत का विभाजन एक बड़ी भूल थी और उससे कोई भी समस्या हल नहीं हुई है। चाहे जो हो, अब दो प्रभुतासंपन्न राष्ट्रों का अस्तित्व एक निर्विवाद तथ्य है। लेकिन साथ ही आजादी के बाद के वर्षों के इतिहास ने एक दूसरे निर्विवाद तथ्य को सिद्ध किया है और वह यह है कि न तो भारत और न पाकिस्तान परस्पर मैत्री एवं सहयोग के बिना जीवित रह सकता है या विकास कर सकता है।”

“ऐसे पारस्परिक संबंध के अभाव से दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में शक्ति-संतुलन बिगड़ गया है, जिसके फलस्वरूप यह उपमहाद्वीप इतिहास और भूगोल द्वारा निर्धारित कार्य पूरा करने में असमर्थ रहा है। परिणाम यह है कि शक्ति का तराजू चीन के पक्ष में झुक गया है और यह एक अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण बात हुई है। कश्मीर के सवाल को इस व्यापक दृष्टिकोण से देखना चाहिए।”

“तो क्या कश्मीर का सवाल हल हो जाने से भारत और पाकिस्तान के बीच मैत्री की स्थापना हो जाएगी?”

“यह प्रश्न विवादास्पद है। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उस मैत्री को बढ़ानेवाली आवश्यक अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का निर्माण करने की दिशा में यह एक लंबा कदम होगा। मैं उत्सुकतापूर्वक आशा करता हूं कि हमारे नेता उस व्यापक दृष्टि और राजनीतिज्ञता का परिचय देंगे जिसकी मांग यह ऐतिहासिक क्षण कर रहा है।”

‘क्रन्तिशोधक लोकनायक के चार अध्याय’ किताब का अंश

पार्ट-3ः पुनर्विचार की आवश्यकता अगले अंक में