अटूट संतोष की लिखी कहानी ससन ( आजादी के अज्ञात मतवाले मुंडा आदिवासियों की कहानी ) पढ़ने का मौका मिला. युवा लेखकों को प्रोत्साहित करने के लिए भारत सरकार ने प्राइम मिनिस्टर्स स्कीम फार मेंटरिंग यंग आर्थस नामक योजना चलाई इसके अंतर्गत युवा नवलेखकों की रचनाएँ मंगवाई गईं. उसी में अटूट संतोष की कहानी चयनित हुई और पुस्तक के रूप में छपी.

आजादी के अमृतकाल में उन गुमनाम नायकों को भी याद करने की कोशिश हुयी जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुती दे दी थी. अटूट संतोष ने भी अपनी कहानी मे उन अज्ञात मुंडाओं की कहानी कही है, जिन्होंने 1890 ई में अपनी जमीन की दावेदारी के लिए कई टन पत्थर पैदल ढोकर कोलकता ले गये थे. वे पत्थर ही उनके जमीन के पट्टे थे. लेकिन कलकत्ता में बैठे अंग्रेज गवर्नर जनरल ने इन पट्टों को नहीं माना और आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल कर दिये गये.

जल, जंगल, जमीन पर अपनी परंपरागत अधिकार की लड़ाई आदिवासी सदियों से लड़ते आ रहे हैं जो अभी तक जारी है. एक बार बेदखल कर दिये जाने के बाद भी आदिवासी चुप रहने वालों में से नहीं थे. उन्होंने अपनी लड़ाई जारी रखी.

1890 का वर्ष अंग्रेजों की हुकूमत, राँची जिला के सोनाहातू प्रखंड में कई मुंडा आदिवासियों के गाँव हैं. अंग्रेज सरकार ने उनकी जमीन छीन ली. अंग्रेजों के ही कोर्ट में न्याय के लिए पुहुंचे इन मुंडाओं को निराशा ही हाथ लगती है, क्योंकि उनके पास जमीन पर उनके अधिकार को प्रदर्शित करता कोई लिखित पट्टा नहीं था. उनके पास केवल जमीन में उनके पुरखों के द्वारा गाड़े गये वे पत्थर ही थे जो जमीन पर उनके अधिकार को प्रदर्शित करता था. कई मुंडा गाँवों के लोग अखडा में जमा होकर सामूहिक निर्णय लेते हैं कि इन पत्थरों को उठाकर वे कोलकता जायेंगे और बडे लाट से अपनी जमीन वापस लेंगे. गाँव के सात युवा इस काम को करने के लिए तैयार हो जाते हैं.

सुगना के नेतृत्व में यह दल पत्थर उठाये कलकत्ता की तरफ चल पड़ता है. कठिन रास्ता था . रास्ते में ही अपने दो साथियों को खोकर सुगना तथा उसके अन्य चार साथी कलकत्ता पहुंच जाते है, लेकिन गवर्नर जनरल उनके पट्टों को अस्वीकार कर उन्हें लौट जाने को कहता है. वे लोग दुखी तो नहीं थे, लेकिन गवर्नर को उन्होंने चुनौती दिया कि वे अपनी जमीन वापस जरूर लेगें लेकिन माँग कर नहीं, बल्कि लड़कर लेगें. 1895 ई. सुगना का बेटा बिरसा मुंडा जो अब बीस बाइस वर्ष का नौजवान था. वह पहाड़ी पर अपने कुछ साथियों के साथ बैठक कर निर्णय लेता है कि वे लोग अंग्रेजों का नाश करेंगे. उलगुलान का नारा लगाते हुए अबुआ राज स्थापित करने का संकल्प लेते हैं.

बालक बिरसा अपने पिता को पुरुखों की जमीन वापस प्राप्त करने के लिए किए प्रयासों को देखता रहा था. युवा होने तक उसकी यह समझ बन चुकी थी कि मुंडाओं के सारे कष्टो का मुख्य कारण अंग्रेजों का शासन है. उससे मुक्त होने पर ही कष्टों का अंत होगा . इसलिए वह अपने साथियों के साथ उनके सर्वनाश का संकल्प लेकर निकल पड़ता है.

इस कहानी को पढ़कर मुंडाओं को अपनी जमीन की कितनी कठिन लड़ाइयाँ लड़नी पड़ी, इसका ज्ञान तो होता ही है, साथ ही घर परिवार, माता- पिता तथा समय का प्रभाव बच्चे के विकास में कैसे सहयोग करते हैं, इसकी भी समझ बनती है. बिरसा अंग्रेजो का शासन काल और उनके विरुद्ध पिता के संघर्ष को देखते हुए बड़ा हुआ और नौजवान बनने के बाद अंग्रेजो का नाश ही उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है.

इस कहानी के लेखक अटूट संतोष के साथ भी यह बात लागू होती है. वंदना, अश्विनी पंकज का सुपुत्र अटूट संतोष भी लेखक माता- पिता की क्षत्र छाया में पलकर बडा हुआ है, तो उनका असर पड़ना स्वाभिवक ही है. हजारों रचनाओं में से चयनित होकर यदि उसकी कहानी पुस्तक के रूप में आ गई है, तो घर के वातावरण को नकारा नहीं जा सकता. सरल भाषा में इतनी बडी घटना को, इतने बडे कालखंड की कहानी को संक्षेप में लिख देना भविष्य के एक बडे लेखक की ओर इंगित करता है अटूट संतोष की यह किताब रोचक और पठनीय हैं.