धुर वामपंथी बुद्धिजीवी अर्जुन प्रसाद सिंह से विनोद कुमार की बातचीत

विनोद: गांधी से कम्युनिस्ट उसी तर भड़कते हैं जैसे लाल कपड़े को देख कर सांढ़. विरोध की वजह क्या है जबकि दोनों समतामूलक, शोषणमुक्त समाज गढ़ने की बात करते हैं. क्या समय के साथ कम्युनिस्टों के नजरिये में कोई फर्क आया है या अब भी उनका वही नजरिया है?

अर्जुन: जेपी, भगत सिंह और कम्युनिस्ट वर्ग संघर्ष को मानते हैं, गांधी को ‘संघर्ष’ शब्द से परहेज है. वे वर्ग सहयोग की बात करते हैं. वर्ग संघर्ष को निगेट करना समझौता है. वे कहते हैं जमींदारों से लड़ो नहीं. तो शोषण उत्पीड़न खत्म कैसे होगा? अधिकार तो लड़ कर लेना होता है. गांधी कर्तव्य बोध की बात करते हैं. इसीलिए हम इस आजादी को समझौते से मिली आजादी कहते हैं. गोरे चले गये, गोरे-भूरे शासक वापस आ गये.

विनोद: गांधी की समझ थी कि पहले देश को विदेशी शासन से मुक्त करो. आजादी के बाद हम अपने घर की समस्याओं को खुद हल कर लेंगे. आप यह क्यों भूलते हैं कि निलहों से गांधी ने निर्णायक संघर्ष किया था. और अंग्रेजों से गांधी ने समझौता कब किया? जालियावाला बाग की घटना के बाद गांधी ने अंग्रेजो से स्पष्ट कहा कि अब उनसे किसी तरह की वार्ता की गुंजाईश नहीं रह गई. ‘भारत छोड़ो’ का आह्वान गांधी ने किया था.

अर्जुन: गांधी कहते हैं कि असहयोग और मानसिक गुलामी को नकार कर हम पूंजीपतियों और जमींदारों को खत्म कर देंगे. कम्युनिस्ट मानते हैं कि जीमंदारों और पूंजीपतियों की सत्ता और व्यवस्था को बलपूर्वक ही हटाया जा सकता है.

विनोद: आप ताकत से अब तक न जमींदारों को खत्म कर सके और न पूंजीपतियों को. मानसिक गुलामी से मुक्ति के बगैर क्या मनुष्य की आजादी संभव है? अंग्रेज या इस्ट इंडिया कंपनी एक छोटी सी सैन्य ताकत से भारत को पराभूत करने में सफल रही. जब गांधी ने उनसे देश छोड़ने की बात कही, उस वक्त भारत में उनकी शासन व्यवस्था मजबूत स्थिति में थी. देशी राजे-रजवाड़े उनके साथ थे. विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों की विजय हो चुकी थी. बावजूद इसके गांधी ने उनसे देश छोड़ जाने को कहा और वे चले गये, क्योंकि गांधी ने स्पष्ट कहा कि डेढ़ दो लाख गोरे इस विशाल देश को कब्जे में नहीं रख सकते. और यह हौसला देश को गांधी के असहयोग आंदोलन से ही प्राप्त हुआ था.

अर्जुन: देखिये, गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से लौट कर भारत आये और भारतीय राजनीति में प्रवेश किया तो हमने साथ काम भी किया और उनसे वैचारिक टकराव भी हुआ. गांधी ने कभी कम्युनिस्ट आंदोलन से सहानुभूति नहीं रखी. हमेशा उनकी आलोचना करते रहे. ओरिजनल पार्टी जो कानपुर में 1925 में बनी, उसके पहले कम्युनिस्ट ग्रुपों में बंट कर काम कर रहे थे. बंबई में श्रीपाद अमृत डांगे का ग्रुप, मद्रास में एम चेटियार का ग्रुप, कलकत्ता में मुज्जफर अहमद ग्रुप, लाहौर में गुलाम हुसैन ग्रुप. एक छोटा सा ग्रुप कानपुर में सत्यभक्त का था. उन्हीं ने कानपुर में तमाम कम्युनिस्ट ग्रुपों को एक बैठक में बुलाया और 25 से 27 दिसंबर 1925 में तीन दिनों की बैठक के बाद भाकपा बनती है. लेकिन सत्यभक्त खुद उस बैठक से आउट कर गये. गांधी, जिन्होंने 1917 की अगस्त क्रांति को देखा था, भाकपा के बनने के प्रत्यक्षदर्शी थे, 14.12.1924 को नवजीवन में लिखते हैं- बोलसेविज्म को मैं अभी तक ठीक-ठीक नहीं समझ सका हूं. मैं इसका अध्ययन भी नहीं कर सका हूं. मैं यह भी नहीं कह सकता कि रूस के लिए यह अंत में लाभदायक होगा कि नहीं. तो भी मैं इतना तो अवश्य जानता हूं कि जहां तक इसका आधार हिंसा और ईश्वर विमुखता है, यह मुझे अपने से दूर ही हटाता है.

1928 में वे यंग इंडिया में लिखते हैं- ऐसा प्रतीत होता है कि वह न केवल हिंसा के प्रयोग का वहिष्कार नहीं करता, बल्कि निजी संपत्ति के अपहरण के लिए और उसे राज्य के सामूहिक स्वामित्व के अधीन बनाये रखने के लिए हिंसा के प्रयोग की खुली छूट देता है. और यदि वैसा है तो मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि बोल्सेविक शासन अपने मौजूदा रूप में ज्यादा नहीं टिक सकता है.

1934 में अमृत बाजार पत्रिका में लिखते हैं- रूसी ढंग का साम्यवाद, यानी जनता पर जबरदस्ती लादा जाने वाला साम्यवाद भारत को रुचेगा नहीं. भारत की प्रकृति के साथ उसका मेल नहीं बैठता है. हां, साम्यवाद अगर बगैर हिंसा के आये तो हम उसका स्वागत करेंगे.

और 1946 में वे कहते हैं - मालूम होता है कि वे रूस के आदेशों पर काम करते हैं, क्योंकि वे भारत के बजाय रूस को अपना आध्यात्मिक घर मानते हैं. मैं किसी बाहरी शक्ति पर इस तरह निर्भर रहना बर्दाश्त नहीं कर सकता.

विनोदः अर्जुनजी, कानपुर की बैठक बुलाने वाले सत्यभक्त ने वाक आउट क्यों किया?

अर्जुन: सत्यभक्त का कहना था रूस से गाईड मत होईये. जब तक बुनियाद में भारत नहीं रहेगा, तब तक कम्युनिस्ट आंदोलन यहां सफल नहीं हो सकता.

विनोद: और रूसी क्रांति का क्या हश्र हुआ?

अर्जुनः दुनियां में कुछ प्रयोग हुये. अनुमानतः दुनियां की एक तिहाई आबादी उस आंदोलन में शामिल हुई. रूस, चीन और रोमानिया, बुल्गारिया, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया सहित एकाध दर्जन देश. वहां कम्युनिस्ट क्रांति हुई. मनमाफिक सत्ता कायम हुई. लेकिन पचास वर्ष के भीतर सब बिखर गया. वहां एक बार फिर पूंजीपतियों का शासन कायम हो गया. रूस और चीन जैसा देश पूंजीवाद के रास्ते पर चल रहे है.

विनोद: आपको नहीं लगता कि गांधी अपने आकलन में सही थे?

..उन्होंने कहा था कि बोल्सेविज्म ज्याद दिन नहीं चलेगा. और यदि साम्यवाद अहिंसा के रास्ते आये तो मैं उसका स्वागत करूंगा.

(अगले अंक मेंः हिंसा और भगत सिंह)