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अंक 188 : 16 मई, 2022
नजरिया: भाजपा चाहती है ‘भगदड’
लाभ के पद वाला मामला कानूनी दृष्टि से कमजोर है और उसके लिए विधायकी जाये, इसकी संभावना नहीं. वैसे, हम जिस दौर में चल रहे हैं, उसमें कुछ भी हो सकता है. चुनाव आयोग केंद्र के इशारे पर कोई भी फैसला ले सकती है. लेकिन शायद गलत फैसला लेकर वह अपनी भद न कराये.
समाज: उनकी ‘मर्दानगी’ संभले नहीं संभल रही
भारत में दिनों दिन पुरुषत्व में वृद्धि हो रही है. यानि मर्दानगी बढ़ रही है. आप कहेंगे हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है तो पुरुषत्व अधिक होगा ही. लेकिन दिन पर दिन बढ़ते हुए इस पुरुषत्व पर थोड़ा सा विचार किया जाये तो बात स्पष्ट हो जायेगी.
इतिहास: जेपी होने का अर्थ - तारीख और तवारीखः जनराज्य या हिंदू
जेपी रेल और खान मजदूरों का सवाल लेकर दिल्ली गये थे। दिल्ली में दंगा चल रहा था। जेपी ने जो हालत देखी, जो तस्वीर देखी, उससे वह बहुत चिंतित हुए, परेशान हुए। सिर्फ दुखी नहीं हुए, देश के अंधकारमय भविष्य की कल्पना कर स्तब्ध रह गये। हालांकि दूसरी तरफ देश में असंतोष था, बेकली थी, देश के नौजवान जेपी की ओर ध्यान लगाए बैठे थे।
बहस: सामूहिकता की शक्ति धर्म के ठेकेदारों ने तोड़ी है!
अनुकूलता और प्रतिकूलताओं के बीच ही इन्सान रास्ता तय करता रहा हैं. हर दौर की अपनी अपनी चुनौतियाँ रही हैं. समाज के लोगों ने उन कठिन परिस्थितियों में भी संघर्ष के रास्ते नहीं छोड़े. समुदायिक और व्यक्तिगत दोनों ही स्तर पर जीवन को सरल बनाने की कोशिश की गयी.
कविता: कनक स्मृति कविता पाठ
सोना दी
हाँ दी, हाँ !
तुम सच में, सोना ही तो हो !
अंक 187 : 01 मई, 2022
नजरिया: सवाल सत्ता का नहीं, प्रतिष्ठा का है
झामुमो सुप्रीमो और उनका परिवार चतुर्दिक विरोधी दल के आक्रमण का शिकार बन रहा है. झारखंड की राजनीति में उनके चिर शत्रु रहे बाबूलाल मरांडी ने आरोप लगाया है कि यह शीर्ष परिवार विशेष भू कानूनों का उल्लंधन कर झारखंड के विभिन्न जिलों में आदिवासी जमीन खरीदते रहे हैं.
संस्कृति: लड़कियों को जनेउ पहना कर लैंगिक समानता लाने की कोशिश!
कोलकाता की रहने वाली दो बहनों का उनके माता पिता ने उपनयन संस्कार किया, यानि, जनेउ का संस्कार किया. इस तरह उन्होंने लैंगिक भेदभाव को मिटाने की कोशिश की. परंपरागत रूप से हिंदू समाज में बेटों का ही जनेउ किया जाता है. लड़कियों के पिता भास्कर बनर्जी कोलकाता हाईकोर्ट में वकालत करते हैं ...
समाज: परिवार औरत के इंसानी वजूद का विसर्जन स्थल न बने
परिवार का आधार प्रेम और परस्पर सहयोग होना चाहिए, निष्ठा और त्याग के नाम पर औरतों के इंसानी वजूद का विसर्जन स्थल नहीं. जीवन अनमोल और सुंदर है. उसे उजाड़ नहीं बनाना है. परिवार, बच्चे और स्त्री-पुरुष के बीच का प्रेम, इनसे दुनिया वंचित न हो, मगर इनकी कीमत औरतों की गरिमा और मानवीयता की हत्या भी न हो.
मुद्दा: उपभोक्तावादी संस्कृति आदिवासी समाज की सबसे बड़ी चुनौती
आज की उपभोक्ता संस्कृति हमारे जीवन को बुरी तरह से प्रभावित कर रही है. उपभोक्तावादी संस्कृति भीषण गरीबी के बीच लग्जरी वस्तुओं की होड़ को बढ़ाता है. विलासिता की बस्तुओं का आकर्षण और इन्हें पाने की लालच ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है और आदिवासी समाज के सदियों से चले आ रहे सादगी व श्रम के मेल से बने जीवन को, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और संस्कृति को भी नुकसान पहुँचा रही है.